✍️ विकास यादव
नई दिल्ली, 30 मार्च 2025, रविवार। चैत्र नवरात्र का आगमन हो चुका है, और यह सिर्फ भक्ति, भजन और व्रत का समय नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर की चेतना को जगाने और आत्मिक शुद्धि का पर्व है। ये नौ दिन हमें नकारात्मकता को अलविदा कहकर सकारात्मकता की ओर बढ़ने का मौका देते हैं। इस पर्व की अधिष्ठात्री हैं भगवती मां दुर्गा, जिन्हें हम शक्ति, करुणा और विजय का प्रतीक मानते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि मां अंबा को “दुर्गा” नाम कैसे मिला? इसके पीछे छिपी है एक असुर की पराजय और मानवता की रक्षा की अनूठी कहानी।
पौराणिक कथाओं में छिपा है रहस्य
देवी भागवत पुराण में वर्णित इस कथा की शुरुआत होती है एक क्रूर असुर से, जिसका नाम था दुर्गम। यह नाम ही बाद में मां के गौरवशाली नाम “दुर्गा” का आधार बना। कहानी कुछ ऐसी है कि असुर हिरण्याक्ष के वंशज रुरु का पुत्र दुर्गम बड़ा महत्वाकांक्षी था। उसने स्वर्ग पर कब्जा करने का सपना देखा और इसके लिए उसने ब्रह्माजी की कठिन तपस्या की। अपनी चतुराई से उसने वेदों को ही मांग लिया। वरदान मिलते ही उसने वेदों को छिपा दिया, जिससे धरती पर ज्ञान का प्रकाश लुप्त हो गया। ऋषियों के आश्रमों में मंत्रोच्चार बंद हो गए, लोग कठोर और स्वार्थी बन गए। अकाल और अव्यवस्था ने सभ्यता को निगलना शुरू कर दिया।
शताक्षी और शाकुंभरी: करुणा की मूर्ति
जब धरतीवासियों का दुख असहनीय हो गया, तब भगवान विष्णु और देवताओं के आह्वान पर मां अंबा प्रकट हुईं। उन्होंने धरती के कष्टों को देखा तो उनके शरीर पर सैकड़ों आंखें उभर आईं, और उन आंखों से करुणा के आंसुओं ने नदियों को फिर से जीवंत कर दिया। इस रूप में वे “शताक्षी” कहलाईं। फिर उन्होंने शाक-सब्जियां प्रकट कीं, जिससे भूखे प्राणियों का पेट भरा। इस करुणामयी स्वरूप के लिए उन्हें “शाकुंभरी” नाम मिला। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित शाकुंभरी पीठ आज भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है।
दुर्गम से युद्ध: शक्ति का प्रचंड रूप
देवी के इन चमत्कारों से धरती पर हरियाली लौट आई, लेकिन असुर दुर्गम का अत्याचार अभी खत्म नहीं हुआ था। जब उसे इस बदलाव की खबर मिली, तो वह क्रोधित हो उठा। अपने दूत का सिर काटकर वह सेना सहित धरती पर पहुंचा और विनाश की योजना बनाई। लेकिन मां अंबा ने एक सुरक्षा कवच बनाकर मानवता को बचा लिया। दुर्गम के सामने जब देवी प्रकट हुईं, तो दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध छिड़ गया।
दुर्गम अपनी मायावी शक्तियों से वार करता रहा, लेकिन योगमाया के आगे उसकी एक न चली। देवी के शरीर से उभरीं काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी जैसी महाविद्याओं ने उसकी सेना को तहस-नहस कर दिया। नौ दिनों तक चले इस संग्राम के बाद दसवें दिन केवल रणचंडी और दुर्गम मैदान में बचे। अंततः देवी ने अपने त्रिशूल से दुर्गम को धरती पर पटक दिया। हारा हुआ असुर जब मां के भव्य स्वरूप को देखने की इच्छा जताई, तो देवी ने उसे अष्टभुजा रूप के दर्शन दिए। इसके बाद त्रिशूल के प्रहार से उसका अंत हो गया।
“दुर्गा” नाम की गूंज
दुर्गम के वध के बाद भगवान विष्णु ने कहा, “इस दुर्गम कार्य को सिद्ध करने वाली आप आज से ‘दुर्गमनाशिनी’ कहलाएंगी, और आपका नाम होगा देवी दुर्गा।” देवताओं ने एक स्वर में जयकार की- “जय मां दुर्गे, जय भवानी!” इस तरह मां अंबा देवी दुर्गा बन गईं। उनका यह अष्टभुजी स्वरूप आज शक्ति और संबल का प्रतीक है, खासकर स्त्री समाज के लिए।
नवरात्र: विजय का उत्सव
नवरात्र में हम इन्हीं मां दुर्गा की आराधना करते हैं, जो हमें सिखाती हैं कि कोई भी बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, सत्य और शक्ति के आगे उसका अंत निश्चित है। तो आइए, इस नवरात्र मां दुर्गा के चरणों में नतमस्तक होकर अपने भीतर की नकारात्मकता को हराएं और एक नई शुरुआत करें। जय मां दुर्गे!