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Thursday, June 19, 2025

न्याय के नए मानक: जस्टिस चंद्रचूड़ के 10 ऐतिहासिक फैसले

नई दिल्ली, 9 नवंबर 2024, शनिवार। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ का सुप्रीम कोर्ट में ऐतिहासिक कार्यकाल समाप्त हो गया है। 8 नवंबर, शुक्रवार को उनका आखिरी विधिक कार्य दिवस था, जिसमें उन्होंने अपने लंबे और महत्वपूर्ण कार्यकाल का समापन किया। 2016 में सर्वोच्च अदालत में पदोन्नत होने के बाद, नवंबर 2022 में उन्हें मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। उनके कार्यकाल में 10 महत्वपूर्ण फैसले सुनाए गए, जिन्होंने गोपनीयता, शारीरिक स्वायत्तता, संघवाद, सकारात्मक कार्रवाई और मध्यस्थता के मामलों को छुआ। उन्होंने 1275 बेंचों का हिस्सा बनकर 613 निर्णय लिखे, जो उनकी विशेषज्ञता और न्यायप्रियता को दर्शाते हैं। सीजेआई चंद्रचूड़ का कार्यकाल न केवल महत्वपूर्ण फैसलों से भरा रहा, बल्कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और न्यायप्रियता को भी बढ़ाया। उनकी विरासत आने वाले समय में न्यायपालिका को प्रेरित करेगी।
डीवाई चंद्रचूड़ के दस बड़े फैसले
निजता का मौलिक अधिकार: एक ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने 24 अगस्त 2017 को सर्वसम्मति से निजता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। यह फैसला न्यायमूर्ति केएस पुट्टस्वामी की 2012 में दाखिल याचिका पर आधारित था, जिसमें आधार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि गोपनीयता अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का आंतरिक हिस्सा है। यह संविधान के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता का हिस्सा है। इस फैसले ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए भी आधार तैयार किया।
समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का ऐतिहासिक फैसला
    6 सितंबर 2018 को, सर्वसम्मति से पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने भारतीय दंड संहिता-1860 की धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द कर दिया। यह फैसला नवतेज सिंह जौहर की याचिका पर आधारित था, जिसमें सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की मांग की गई थी। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 377 ने नागरिकों के एक वर्ग को हाशिये पर ला दिया है। उन्होंने पुट्टस्वामी मामले में अपने पिछले फैसले को आधार बनाते हुए कहा कि यौन रुझान के अधिकार को मान्यता ना देना निजता से इनकार है।
    व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का ऐतिहासिक फैसला
      27 सितंबर 2018 को, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से भारतीय दंड संहिता-1860 की धारा 497 को रद्द कर दिया, जिसमें व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था। इस प्रावधान के तहत, किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने वाले व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता था। पीठ ने तर्क दिया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करता है, जो समानता, नागरिकों के अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि व्यभिचार का कानून पितृसत्ता का एक संहिताबद्ध नियम है, जिसने विवाह में महिलाओं की अधीनस्थ प्रकृति के प्रतिगामी विचार को बढ़ावा दिया है। इस फैसले ने महिलाओं की स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और समाज में लिंग समानता को बढ़ावा दिया।
      सबरीमाला मंदिर प्रवेश मामला
        सबरीमाला मंदिर प्रवेश मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय था। 28 सितंबर 2018 को, पांच जजों की बेंच ने 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया कि मासिक धर्म आयु वर्ग की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश से वंचित करना असंवैधानिक था। यह फैसला इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन द्वारा दायर की गई याचिका पर आधारित था, जिसमें तर्क दिया गया था कि महिलाओं को उनकी जैविक विशेषताओं के आधार पर बहिष्कार भेदभावपूर्ण था और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 17 का उल्लंघन है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाना एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है और भगवान अयप्पा के भक्त अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक संप्रदाय का गठन नहीं करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायालय द्वारा स्वयं को उन प्रथाओं के लिए मध्यस्थ के रूप में स्थापित करना समस्याग्रस्त था, और वह किसी धार्मिक प्रथा को केवल मौलिक अधिकारों के विरुद्ध परीक्षण करना पसंद करते हैं। इस फैसले ने महिलाओं के धार्मिक स्वतंत्रता, समानता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और समाज में लिंग समानता को बढ़ावा दिया।
        अयोध्या मालिकाना हक विवाद
          अयोध्या मालिकाना हक विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय था। 9 नवंबर 2019 को, पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से विवादित अयोध्या का मालिकाना हक श्री रामलला विराजमान को दिया। इस फैसले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी शामिल थे, जिन्होंने एम सिद्दीक बनाम महंत सुरेश दास मामले में अपनी राय व्यक्त की। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में कहा गया था कि विवादित जमीन पर राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा और इसके लिए एक ट्रस्ट का गठन किया जाएगा। साथ ही, उत्तर प्रदेश सरकार को मस्जिद के निर्माण के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में एक वैकल्पिक स्थान देने का आदेश दिया गया। यह फैसला एक सदी पुराने विवाद का अंत करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ।
          राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का प्रशासन
            राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के प्रशासन से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 4 जुलाई 2018 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस मामले में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच कार्यकारी प्रमुख की भूमिका को लेकर विवाद था। पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला किया कि दिल्ली सरकार के कार्यकारी प्रमुख मुख्यमंत्री होते हैं, न कि दिल्ली के उपराज्यपाल (एलजी)। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 239-AA की व्याख्या की, जो दिल्ली के लिए विशेष प्रावधानों से संबंधित है। इस अनुच्छेद के तहत दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्राप्त है, जिसमें केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच शक्तियों का विभाजन होता है। इस फैसले से दिल्ली सरकार की स्वायत्तता और शक्तियों को मजबूती मिली, और यह सुनिश्चित हुआ कि दिल्ली सरकार अपने कार्यकारी प्रमुख के रूप में मुख्यमंत्री की भूमिका निभा सकती है।
            विवाह समानता के लिए याचिका
              विवाह समानता के लिए याचिका मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण निर्णय था। 17 अक्टूबर 2023 को, पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से कहा कि यौन अल्पसंख्यकों के लिए शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। हालांकि, पीठ ने यह भी घोषणा की कि विषमलैंगिक संबंधों में ट्रांसजेंडर या इंटरसेक्स व्यक्ति शादी कर सकते हैं। इस फैसले में सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने यह भी माना कि विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए), 1954 गैर-विषमलैंगिक जोड़ों को बाहर करने के लिए भेदभावपूर्ण नहीं है। यह फैसला विवाह समानता के मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण कदम है और समाज में लिंग समानता को बढ़ावा देने में मदद करेगा। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी हाल ही में कहा है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच विवाह की कानूनी उम्र में अंतर “पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह” पर आधारित है। वर्तमान में भारत में पुरुषों के लिए विवाह योग्य आयु 21 वर्ष है, जबकि महिलाओं के लिए 18 वर्ष है।
              अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की चुनौती
                अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। 11 दिसंबर 2023 को, पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करना सही था, जिससे जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा मिला था। इस फैसले में सीजेआई चंद्रचूड़ ने बहुमत की राय लिखी, जिसमें जस्टिस कौल और खन्ना की सहमति थी। सभी न्यायाधीश इस बात पर सहमत थे कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था, जो तत्कालीन राज्य की तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। यह फैसला जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो राज्य के विकास और एकता को बढ़ावा देने में मदद करेगा।
                चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिकता
                  चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण निर्णय था। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले, सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से 2018 चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया। पीठ ने माना कि यह योजना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में निहित मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। यह फैसला राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।
                  एससी/एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण

                    एससी/एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण निर्णय था। 1 अगस्त 2024 को, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में सात जजों की बेंच ने 8:1 के बहुमत से फैसला सुनाया कि राज्य सरकारों के पास आरक्षित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण बनाने की शक्ति है। यह फैसला सकारात्मक कार्रवाई विमर्श के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे समाज के सबसे कमजोर वर्गों को आरक्षण का लाभ मिल सके। इस मामले में पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया गया था। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि उप-वर्गीकरण मूलभूत समानता प्राप्त करने के साधनों में से एक है, जिससे समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर किया जा सके।

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