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Friday, May 10, 2024

प्रकाश पर्व , दीपक और दीपावली का त्यौहार

दीपावली प्रकाश पर्व है। यानी अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है। आदिकाल से चली आ रही सांस्कृतिक यात्रा का यह त्योहार सामाजिक जीवन की प्रसन्नता और मंगल का प्रतीक रहा है। इस कालखण्ड में मानव ने मिट्टी, पत्थर, काठ, मोम और धातुओं के स्वरूप में हजारों तरह के शिल्प में दीपक गढ़े हैं।

शुरुआत में दीवाली की मुख्य भावना दीप दान से जुड़ी थी। प्रकाश के इस दान को पुण्य का सबसे बड़ा कर्म माना जाता था। दीपों के कलात्मक आकार में मनुष्य की कल्पना व संवेदनशील उंगलियों का इतिहास भी अंकित है। इस जगत में जीवन जीने के लिए प्रत्येक प्राणी को उजाले की जरूरत पड़ती है। बिना उजाले के वह कोई कार्य सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न नहीं कर पाता है। वैसे तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण व उपयोगी प्रकाश सूर्य का है। इसके प्रकाश में ही अन्य सभी प्रकार के प्रकाश समाविष्ट रहते हैं। इसीलिए दीवाली को प्रकाश का पर्व कहा जाता है। कहा भी गया है-

शुभं करोति कल्याण आरोग्यं सुख संपदम्।

शत्रु बुद्धि विनाशं च दीपज्योतिः नमोस्तुते।।

सीपियों का दीपक, घास या कपास की बत्ती और रोशनी लिए चर्बी होती थी इस्तेमाल

लेखक प्रमोद भार्गव का मानना है कि शुरुआती दौर में सीपियों का दीपक के रूप में उपयोग किया जाता था। इसमें रोशनी पैदा करने के लिए चर्बी डाली जाती थी और घास या कपास की बत्ती होती थी। इसके बाद पत्थर और काठ के दीपक अस्तित्व में आए। तत्पश्चात मिट्टी के दिए बनाए जाने लगे। कुम्हार के चाक की खोज के बाद तो मिट्टी के दीए अनूठे व आकर्षक शिल्पों में अवतरित होने लगे और ये घर-घर आलोक-स्तंभ के रूप में स्थापित हो गए। धातुओं की खोज और उन्हें मनुष्य के लिए उपयोगी बनाए जाने के बाद बड़े लोगों के घरों व महलों की शोभा धातु के दिए बनने लगे। जो वैभव का प्रतीक भी थे। स्वर्ण, कांसा, तांबा, पीतल और लोहे के दीयों का प्रचलन शुरू हुआ। इसमें पीतल के दीपकों को बेहद लोकप्रियता मिली। रामायण और महाभारत में भी ‘रत्नदीपों’ का उल्लेख देखने को मिलता है।

सत्रह-अठारहवीं सदी में दीपकों को अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा

कालांतर में एकमुखी से बहुमुखी दीपक बनाए जाने लगे। इनकी मूठ भी कलात्मक और पकड़ने में सुविधाजनक बनायी जाने लगी। सत्रह-अठारहवीं सदी में दीपकों को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों व अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा। इस समय ‘मयूरा धूप दीपक’ का चलन खूब था। इसकी आकृति नाचते हुए मोर की तरह होती है। इसके पंजों के ऊपर बत्ती रखने के लिए पांच कटोरे बने होते हैं। मोर के ऊपर बनी छेदों में अगरबत्तियां लगाई जाती हैं।

राजे-रजवाड़े के कालखंड में छत से लटकते दीपों का प्रचलन खूब था। ये परी, पशु, पक्षी और देवी-राजे-रजवाड़े के कालखंड में छत से लटकते दीपों का प्रचलन
देवताओं की आकृतियों से सजे रहते थे। सांकल से लटके हंस और कबूतरों के पंजों पर तीन से पांच दीपक बनाए जाते थे। मुगलों के समय दीपकों में नायाब परिवर्तन आए। इस समय गोल लटकने वाले कलात्मक दीपक ज्यादा संख्या में बने इसके अलावा आठ कोनों वाले, गुम्बदाकार व ऐसे ही अन्य प्रकार के दीपक बनाए जाने लगे। इन दीपकों में से रोशनी बाहर झांकती थी।

दीपक जलाने के लिए गाय के घी को सबसे ज्यादा उपयोगी

जब दीपक सैंकड़ों आकार-प्रकारों में सामने आ गए तो इनकी सुचारू रूप से उपयोगिता के लिए ‘दीपशास्त्र’ भी लिख दिया गया। जिसमें दीपक जलाने के लिए गाय के घी को सबसे ज्यादा उपयोगी बताया गया। घी के विकल्प के रूप में सरसों के तेल का विकल्प दिया गया। कपास से कई प्रकार की बत्तियां बनाने के तरीके भी दीपशास्त्र में सुझाए गए हैं। दीपावली पर देश में घी और सरसों के तेल से ही दीपक प्रज्ज्वलित किए जाते हैं।

संगीत के एक राग के रूप में ‘दीपक-राग’ का जिक्र

सोलहवीं सदी में तो संगीत के एक राग के रूप में ‘दीपक-राग’ की भी महत्ता व उपलब्धि है। इस संदर्भ में जनश्रुति है कि संगीत सम्राट तानसेन द्वारा दीपक राग के गाए जाने पर मुगल सम्राट अकबर के दरबार में बिना जलाए दीप जल उठे थे। दीपक-राग के गाने के बाद ही तानसेन को ‘संगीत सम्राट’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर परिसर में दीपों के स्तंभ बने हुए हैं, जिनपर सैंकड़ों दीप एक साथ रखकर जलाए जाते हैं।

प्राचीन भारतीय परंपरा में दीपक के दान से बड़ा महत्व जुड़ा है। महाभारत के ‘दान-धर्म-पर्व’ में दीपदान के फल की महत्ता दैत्य ऋषि शुक्राचार्य ने दैत्यराज बलि को इस प्रकार समझाई है-

कुलोद्योतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्वं च गच्छति।

ज्योतिषां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा।।

अर्थात, दीपकों का दान करने वाला व्यक्ति अपने वंश को तेजस्वी व समृद्धशाली बनाने वाला होता है और अंत में वह आलोकमयी लोकों को गमन करता है।

anita
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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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