आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु के निमित्त योगिनी एकादशी करने का विधान है। जो इस वर्ष 14 जून, बुधवार को है। परमेश्वर श्रीविष्णु ने मानव कल्याण के लिए अपने शरीर से पुरुषोत्तम मास की एकादशियों को मिलाकर कुल छब्बीस एकादशियों को प्रकट किया। कृष्ण और शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली इन एकादशियों के नाम और उनके गुणों के अनुसार ही उनका नामकरण भी किया। सभी एकादशियों में नारायण समतुल्य फल देने का सामर्थ्य है। ये सभी अपने भक्तों की कामनाओं की पूर्ति कराकर उन्हें विष्णु लोक पहुंचाती हैं। इनमें ‘योगिनी एकादशी ‘तो प्राणियों को उनके सभी प्रकार के अपयश और चर्म रोगों से मुक्ति दिलाकर जीवन सफल बनाने में सहायक होती है।
योगिनी एकादशी पूजा और फल
इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ पीपल के वृक्ष की पूजा का भी विधान है। साधक को इस दिन व्रती रहकर भगवान विष्णु की मूर्ति को ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘मंत्र का उच्चारण करते हुए स्नान आदि कराकर वस्त्र ,चन्दन , जनेऊ ,गंध, अक्षत, पुष्प ,धूप-दीप नैवेध, ताम्बूल आदि समर्पित करके आरती उतारनी चाहिए। पदम पुराण के अनुसार योगिनी एकादशी समस्त पातकों का नाश करने वाली संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए सनातन नौका के सामान है। यह देह की समस्त आधि-व्याधियों को नष्ट कर सुंदर रूप, गुण और यश देने वाली है। इस व्रत का फल 88 हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने के फल के समान है। इस एकादशी के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई थी जिसमें राजा कुबेर के श्राप से कोढ़ी होकर हेममाली नामक यक्ष मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा। ऋषि ने योगबल से उसके दुखी होने का कारण जान लिया और योगिनी एकादशी व्रत करने की सलाह दी। यक्ष ने ऋषि की बात मानकर व्रत किया और दिव्य शरीर धारण कर स्वर्गलोक चला गया।
वर्जित है एकादशी को चावल खाना
पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया उस दिन एकादशी तिथि थी। अतः इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है ,ताकि सात्विक रूप से विष्णु प्रिया एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।