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Friday, April 26, 2024

योगी बनाम केशव क्या मुख्यमंत्री पद पर सस्पेंस बनेगा भाजपा का 2022 का ब्रह्मास्त्र

उत्तर प्रदेश भाजपा की अगड़ी जातियों के कुछ नेता योगी आदित्यनाथ को ही 2022 में विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद पर देखना चाहते हैं। इसके समानांतर अन्य पिछड़े वर्ग के नेता केशव प्रसाद मौर्य के समर्थन में हैं। भाजपा के अंदरखाने में मुख्यमंत्री के भावी चेहरे को लेकर हलचल तेज है, हालांकि भाजपा इसके लिए अभी अपने हाथ जलाने के मूड में नहीं है। प्रदेश स्तर के कुछ नेताओं से बातचीत में सामने आया कि केंद्रीय नेतृत्व इस मामले में सस्पेंस बनाए रखने के मूड में है। पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन की तैयारियां तेज हो गई हैं और अब मुख्यमंत्री चेहरे का नतीजा 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद विधायकों की बैठक में ही आएगा।

आगे कुआं, पीछे खाई

पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी समेत आठ विधायकों के इस्तीफे के बाद कुछ समय के लिए भाजपा का धर्मसंकट बढ़ गया था। यह धर्म संकट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के लिए भी था। उत्तर प्रदेश की चुनावी रणनीति से जुड़े भाजपा के नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि फिलहाल अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भावी मुख्यमंत्री बताकर चुनाव में जाने में भी नुकसान है और केशव मौर्य के नाम की घोषणा करने से भी फायदा नहीं होगा। प्रधानमंत्री मोदी पार्टी का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा हैं। राज्य की जनता ने उन्हीं के नाम, आश्वासन और भरोसे के बूते 2014, 2017 और 2019 में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता दिखाई है। योगी आदित्यनाथ का चेहरा भी मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव के बाद आया था। इसलिए 20 जनवरी के बाद प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जोरदार प्रचार देखने को मिलेगा। योगी और मौर्य भाजपा प्रत्याशियों को चुनाव में सफलता दिलाने के लिए मेहनत करेंगे।

भाजपा मुख्यालय के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि उत्तर प्रदेश ही नहीं पांच राज्यों में भाजपा मजबूती के साथ चुनाव लड़ रही है। हम पांच राज्यों में सरकार बनाएंगे और इसके लिए जल्द ही चुनाव आयोग के दिशा निर्देशों के अनुरुप प्रचार आरंभ हो जाएगा।

2017 के समीकरण को समझने की कसरत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक अनिल विधानसभा चुनाव के समीकरण को समझ रहे हैं। संगठन मंत्री सुनील बंसल ने एक-एक विधानसभा सीट के लिए पन्ना प्रमुख से लेकर बूथ प्रबंधन तक का पूरा होमवर्क किया है। 2014 में लोकसभा चुनाव में सफलता मिलने के बाद भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव के लिए भी इसी तरह से कड़ी मेहनत की थी। तब बूथ स्तर तक संगठन को खड़ा करने में एड़ी चोटी का जोर लगाया था। जीत के समीकरण को तय करने के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग में यादव के बाद सबसे मुख्रर जाति मौर्य को चेहरा बनाकर अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (तब मां-बेटी साथ थीं), ओम प्रकाश राजभर के सहारे भाजपा ने बड़ी सेंध लगाई थी। वर्मा, कुशवाहा, सैनी को अपने पाले में किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, गुर्जर पार्टी के साथ थे। इसी तरह से दलितों में गैर जाटव और खासकर पासवान समेत तमाम जातियों को जोड़कर भाजपा ने 39.9 फीसदी वोट हासिल करके प्रचंड बहुमत पाया था।

प्रयागराज के भाजपा के एक नेता मानते हैं कि मौर्य और पिछड़ों की राजनीति में स्वामी प्रसाद मौर्य का कद केशव प्रसाद मौर्य से कहीं बड़ा है। स्वामी प्रसाद जब भाजपा में आए तो अपने साथ पिछड़े वर्ग के 14 जनाधार वाले नेताओं को लाए थे। अब जब भाजपा से चले गए हैं तो ये नेता भी उनके साथ चले गए। इसलिए यह नहीं कह सकते कि नुकसान नहीं होगा। करीब 8-10 जिलों में 30-40 विधानसभा सीटों पर थोड़ी मेहनत बढ़ गई है।

योगी और शाह की कोशिश हुई नाकाम

अमित शाह चाहते थे कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जाति का मुद्दा प्रबल न होने पाए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 2022 के चुनाव में अयोध्या में राम मंदिर, बनारस में बाबा विश्वनाथ धाम के साथ-साथ मथुरा का मुद्दा उठाकर जनता के बीच जाना चाहते थे। गन्ना और जिन्ना के मुद्दे को हवा देकर और अली से बजरंग बली तक के रंग में भगवा राजनीति को अल्पसंख्यकों (मुसलमान) के खिलाफ करना चाहते थे। 80 बनाम 20 का बयान भी इसी सिलसिले में था। अमित शाह और योगी इस रणनीति को प्रधानमंत्री मोदी ने भी सहमति दे दी थी। काशी विश्वनाथ धाम परिसर का काम पूरा होने से पहले ही लोकार्पण इसी का संदेश था। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव इस रणनीति को समझ रहे थे। वह अपने रणनीतिकारों के साथ जमीनी स्तर पर तमाम पिछड़े और दलित वर्ग की जातियों, संगठनों, उनके नेताओं को जोड़ने के साथ जातिगत रंग देने की कोशिश में लगे थे। समाजवादी पार्टी के नेता भी मानते हैं कि उन्हें इसमें असली सफलता स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़ने के बाद मिली। महज 24 घंटे के भीतर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 ने जातिगत आधार की चादर ओढ़ ली।

दो ध्रुवीय चुनाव और उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनौती
पिछले 30 साल की राजनीति में बहुकोणीय चुनाव हमेशा भाजपा के पाले में और अच्छा रहा है। इस बार विधानसभा चुनाव पहले चरण की अधिसूचना जारी होने के साथ ही भाजपा और समाजवादी पार्टी में मुख्य मुकाबले की पृष्ठभूमि बना रहा है। कांग्रेस और बसपा को छोड़कर करीब-करीब सभी विपक्षी राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हैं। भाजपा के नेताओं को इसकी भी पूरी संभावना है कि दो-चार दिन में समाजवादी पार्टी तीन सीटें देकर भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण से भी चुनाव पूर्व गठबंधन कर लेगी। ओम प्रकाश राजभर भी इसकी पैरवी करने में जुट गए हैं। ऐसे में समाजवादी पार्टी की तरफ जातियों की बड़ी गोलबंदी चल रही है। यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है।

खतरे की घंटी और चुनौती

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कई मुद्दे खतरे की घंटी की तरह हैं। भाजपा के नेता भी इसे गंभीर मुद्दा मानते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता और विचार से भाजपा रूझान वाले अश्विनी उपाध्याय भी गावों में आवारा पशुओं का घूमना बड़ी समस्या मानते हैं। हरिकेश यादव भी भाजपा के नेता हैं। उनका भी मानना है कि जनवरी-फरवरी का चुनाव का महीना और आवारा पशुओं की समस्या गांव-गांव में किसानों को भाजपा से नाराज कर सकती है। वैसे भी हाल में ही किसान आंदलोन का तंबू दिल्ली से हटा है। हालांकि जमीनी स्तर पर टीम लगी हुई है।

दूसरी बड़ी समस्या जातियों के समीकरण की

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का बड़ा वर्ग पिछले चुनाव में भाजपा के साथ था। ब्राह्मण मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कुछ नीतियों के कारण नाराज बताया जा रहा है। हालांकि भाजपा के नेता राजेश पांडे कहते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है। ब्राह्मणों को चाहे जितना नाराज बताया जाए, वोट भाजपा को ही देगा। यही स्थिति क्षत्रिय, कायस्थ, वैश्य के मामले में भी रहने वाली है।

राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग 44 फीसदी है। पिछली बार इसकी एक बड़ी तादाद (70 फीसदी से अधिक) भाजपा के साथ थी। इस बार इसमें बड़े बंटवारे की संभावना है। इसमें मौर्य, कुशवाहा (काछी), राजभर, पटेल, सैनी, कोईरी, कुर्मी खासकर वर्मा, कोहार, लोहार समेत अन्य सपा के साथ भी जा सकते हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, गुर्जर और अन्य जातियां कैराना, मुजफ्फरनगर दंगों के कारण भाजपा के साथ थी। 2022 में किसान आंदोलन और जमीनी स्तर पर किसानों की अर्थव्यवस्था पर इसके दुष्प्रभाव के कारण इस बार यहां भी वोटों का बंटवारा तय है। राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी के साथ इसका एक बड़ा हिस्सा जुड़ जाने के संकेत हैं। इस बार का चुनाव भी समाजवादी पार्टी, रालोद मिलकर लड़कर रही है।

अल्पसंख्यक मतों में सेंध के लिए 2017 में बसपा भी तगड़ी दावेदार थी। कांग्रेस पार्टी के पाले में भी मतों का बंटवारा हुआ था। 2022 में जिस तरह से समाजवादी पार्टी के साथ छोटे दलों की गोलबंदी हो रही है और जैसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 80 बनाम 20 का बयान दिया है, उससे सपा को ही फायदा होने की उम्मीद है।

पूरे उत्तर प्रदेश में ठाकुर मतदाता योगी आदित्यनाथ के पीछे लामबंद हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश की लड़ाई सतह पर आने के कारण यहां सेंध लगी थी। भाजपा के नेता ज्ञानेश्वर शुक्ला भी मानते हैं कि इस बार 95 फीसदी यादव मत सपा के साथ लामबंद हो सकता है।

समाजवादी पार्टी के नेताओं का कहना है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य के बीच में वर्चस्व की लड़ाई का भी उन्हें लाभ मिलेगा। भाजपा के नेता कहते हैं कि यह तो मीडिया के द्वारा पैदा किया झगड़ा है। जमीन पर ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन इससे कुछ नुकसान हो सकता है।

anita
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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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