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Saturday, March 29, 2025

काव्य, संवाद और संगीत: बुढ़वा मंगल में थिरकी काशी की संस्कृति

वाराणसी, 26 मार्च 2025, बुधवार। काशी की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने और नई पीढ़ी के दिलों में इसके प्रति प्रेम जगाने के लिए सुबह-ए-बनारस आनंद कानन ने एक अनूठा प्रयास किया। मंगलवार को गंगा के तट पर बसे अस्सी घाट पर बुढ़वा मंगल महोत्सव का आयोजन हुआ, जो काशी के प्राचीन लोक उत्सवों में से एक बुढ़वा मंगल के सांस्कृतिक वैभव को फिर से जीवंत करने का एक खूबसूरत प्रयास था। यह आयोजन केवल एक समारोह नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सेतु बनकर उभरा, जिसमें युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ने का संकल्प साफ झलकता था।

यह महोत्सव दो सत्रों में तीन चरणों के साथ आयोजित हुआ, जिसमें हर चरण अपनी विशिष्टता लिए हुए था। पहले सत्र का पहला चरण काव्य मंगल के नाम रहा, जहां शब्दों के जादू ने सभी को मंत्रमुग्ध किया। इसके बाद संवाद मंगल में विचारों का आदान-प्रदान हुआ, जो मन को सोचने पर मजबूर करता था। अंतिम सत्र संगीत मंगल के लिए समर्पित था, जिसमें सुरों की मिठास ने वातावरण को और भी रसमय बना दिया।

काशीवासियों का उत्साह और पारंपरिक परिधान

इस आयोजन में शामिल होने वाले काशीवासियों ने इसे और भी यादगार बना दिया। पुरुषों ने सफेद कुर्ता-पायजामा पहनकर सादगी और शालीनता का परिचय दिया, तो महिलाओं ने गुलाबी साड़ियों में अपनी खूबसूरती से चार चांद लगा दिए। आयोजकों की ओर से सभी को दुपलिया टोपी और गुलाबी दुपट्टे भेंट किए गए, जो इस उत्सव के रंग को और गहरा रहे थे। गुलाब की पंखुड़ियों और इत्र की महक हवा में घुलती रही, मानो पूरा अस्सी घाट किसी सुगंधित बगीचे में तब्दील हो गया हो।

पद्मश्री डॉ. सोमा घोष की चैती ठुमरी ने बांधा समां

महोत्सव का सबसे आकर्षक पल तब आया, जब पद्मश्री से सम्मानित डॉ. सोमा घोष ने अपनी जादुई आवाज से चैती ठुमरी के रंग बिखेरे। फागुन और चैत के महीनों में गाई जाने वाली यह लोक संगीति परंपरा उनके सुरों में जी उठी। उन्होंने अपने गायन की शुरुआत ‘हमरी अटरिया पे आजा रे सांवरिया, देखा देखी तनिक होइ जाए’ से की, जिसने श्रोताओं को तुरंत अपनी ओर खींच लिया। इसके बाद ‘पिया के आवन की आस’, ‘बिछुआ बाजे रे ओ बालम’, और ‘रंग डारूंगी डारूंगी’ जैसी रचनाओं ने ठुमरी के विविध रूपों को सामने लाया। उनकी हर प्रस्तुति में भावनाओं का ऐसा संगम था कि गंगा का किनारा सुर और ताल से थिरक उठा।

यह आयोजन न केवल काशी की लोक संस्कृति का उत्सव था, बल्कि एक संदेश भी था कि हमारी परंपराएं कितनी जीवंत और समृद्ध हैं। बुढ़वा मंगल महोत्सव ने यह साबित कर दिया कि अगर मन में संकल्प हो, तो पुरानी विरासत को नए रंगों में ढालकर आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाया जा सकता है। गंगा की लहरों के बीच बसी यह सांस्कृतिक मिठास हर किसी के मन में लंबे समय तक गूंजती रहेगी।

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