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Sunday, May 19, 2024

मुकुल रॉय ने घर वापसी करते हुए ममता बनर्जी का दामन थाम लिया

भाजपा जितिन प्रसाद के पार्टी में आने की खुशी ठीक से मना भी नहीं पाई थी कि उसे पश्चिम बंगाल में जोर का झटका लग गया। पार्टी के उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने शुक्रवार को भाजपा का दामन छोड़ घर वापसी करते हुए ममता बनर्जी का दामन थाम लिया जो भाजपा में आने से पहले उनका ठिकाना था। इससे जहां भाजपा की दूसरे दलों से नेताओं को इम्पोर्ट करने वाली रणनीति पर सवाल खड़ा हो गया है, वहीं खबर है कि तृणमूल कांग्रेस मुकुल रॉय को राज्यसभा भेजेगी। वे यहां दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रहकर ममता बनर्जी की केन्द्रीय राजनीति में भूमिका की जमीन तैयार करेंगे। 

दरअसल, मुकुल रॉय और ममता बनर्जी का साथ बहुत पुराना है। वे उन चंद नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने 1998 में ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस का साथ छोड़ा था। उस समय ममता बनर्जी खेमे की मांग थी कि कांग्रेस नेतृत्व ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में पार्टी का नेता बनाये और उनके नेतृत्व में चुनाव में जाए। कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व द्वारा इस मांग को अस्वीकार कर दिए जाने के बाद इन नेताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ अपना अलग झंडा बुलंद कर लिया। इतिहास साक्षी है कि उसके बाद ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की एकछत्र नेता बनकर उभरीं और अब तक तीन बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुकी हैं।

जानकार मानते हैं कि मुकुल रॉय अकेले ही ममता बनर्जी के खेमे में वापस नहीं आए हैं। जब वे तृणमूल कांग्रेस का साथ छोड़ भाजपा में गए थे, तब उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के सैकड़ों नेताओं को भाजपा से जोड़ा था। ये नेता बहुत गहराई से उनके साथ जुड़े हुए हैं। अब जब मुकुल रॉय ने स्वयं घर वापसी कर ली है, माना जा रहा है कि ये सभी नेता एक बार फिर ममता बनर्जी के खेमे में वापसी करेंगे।

यह भाजपा के लिए बड़ा झटका होगा। क्योंकि जिस समय पार्टी उत्तर प्रदेश में अपना मिशन आगे बढ़ा रही होगी, और अपनी पुरानी रणनीति के अनुसार कभी कांग्रेस तो कभी किसी अन्य दल के नेताओं को अपने साथ जोड़कर जनता के बीच सर्वस्वीकार्य पार्टी की छवि गढ़ने की कोशिश कर रही होगी, ठीक उसी समय बीच-बीच में पश्चिम बंगाल भाजपा के नेता उसका घर छोड़-छोड़कर ममता बनर्जी के खेमे में जा रहे होंगे। अगर ममता बनर्जी इसे सही से इस्तेमाल कर पाईं तो यह भाजपा नेतृत्व के लिए बड़ी असहज करने वाली स्थिति होगी।
ममता बनर्जी के खास
मुकुल रॉय ममता बनर्जी के उतने ही खास थे जितना कि कभी सुवेंदु अधिकारी हुआ करते थे। लोगों के जेहन में अभी भी वह तस्वीर धुंधली नहीं पड़ी है जब यूपीए सरकार में दिनेश त्रिवेदी से नाराज ममता बनर्जी ने उनसे रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दिलवा दिया था, और उनकी जगह मुकुल रॉय को रेल मंत्री बनवा दिया था। शायद भारत के इतिहास में यह पहली घटना रही होगी जहां रेल मंत्रालय का बजट किसी एक मंत्री (दिनेश त्रिवेदी) ने पेश किया था, तो उसे पास दूसरे रेल मंत्री मुकुल रॉय ने कराया था। 
फिर बनेंगे ममता बनर्जी के चाणक्य
कहा जाता है कि ममता बनर्जी के संघर्ष को आगे बढ़ाने में मुकुल रॉय का एक बड़ा हाथ था। मुकुल रॉय जैसे चंद नेताओं के साथ की ही बदौलत ममता बनर्जी अपना मिशन आगे बढ़ा पाईं और कुछ ही सालों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन गईं। यही कारण है कि मुकुल रॉय की भाजपा ज्वाइन करने की ‘बड़ी गलती’ को भी भूलते हुए उनका पार्टी में वापसी का रास्ता तैयार कर लिया गया। 

दरअसल, ममता बनर्जी अपने इस पुराने सिपाहसालार की क्षमता से बखूबी वाकिफ हैं। वे जानती हैं कि बहुत कम बोलने वाले मुकुल रॉय चुपचाप अपना काम करना जानते हैं और दिन-रात अपने उद्देश्यों के लिए लगे रहते हैं। अब वे मुकुल रॉय की इसी खूबी को दुबारा इस्तेमाल करना चाहती हैं। 
रॉय को राज्यसभा भेजने का मन
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक तृणमूल कांग्रेस मुकुल रॉय को राज्यसभा में भेजने का मन बना चुकी है। वे यहां रहकर 2024 के आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए काम करेंगे। उनकी कोशिश यह भी होगी कि अगर गैर-भाजपाई दलों के बीच नेतृत्व के मुद्दे पर कोई सहमती बन सके तो ममता बनर्जी को उस खेमे के नेतृत्व के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जाए। 

2024 के आम चुनाव के पहले ममता बनर्जी जिस तरह से फाइटर बनकर उभरी हैं, किसान नेता राकेश टिकैत जैसे नेताओं ने उनसे मिलकर जिस तरह विरोध की कमान अपने हाथ में लेने की अपील की है। जिस तरह ममता बनर्जी के इस विधान सभा चुनाव में चाणक्य की भूमिका निभा चुके प्रशांत किशोर, शरद पवार जैसे नेता से मिलकर 2024 की पटकथा लिखना शुरू कर चुके हैं, उसे देखकर लगता है कि ममता बनर्जी को अपने इस पुराने विश्वस्त से बड़ी उम्मीदें हैं। ममता का यह विश्वास कितना खरा उतरेगा यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है।

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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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