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Monday, May 20, 2024

84 वाला करिश्मा कांग्रेस का, 24 में दोहरा पाएगी भाजपा?

हर नारा हकीकत में बदले, यह मुमकिन नहीं। 2024 के लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भाजपा यूपी की सभी 80 सीटें जीतने के संकल्प को पूरा कर पाएगी? विश्लेषकों का कहना है कि यह कठिन जरूर है, लेकिन नामुमकिन कतई नहीं है। कांग्रेस इस तरह का करिश्मा 40 साल पहले दिखा चुकी है और भाजपा नीत राजग तब की सहानुभूति से इतर मनमोहन सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर (एंटी इन्कम्बेंसी) की मदद से  2014 में 73 सीटें हासिल कर चुकी है। यही नहीं   2019 में कांग्रेस को 84 में मिले मत प्रतिशत को भी    पीछे छोड़ चुकी है। हरियाणा, गुजरात व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य  हैं, जहां की लोकसभा की शत-प्रतिशत सीटें भी जीती हैं।

सियासी पंडित तर्क दे रहे हैं कि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जिस तरह से भावनाओं का उभार हाे रहा है, ज्ञानवापी और मथुरा का प्रचार हो रहा है, सीएए से ध्रुवीकरण हो रहा है उससे माहौल तो बना ही है। यह भी कहा जा रहा है कि लाभार्थियों का बड़ा वर्ग एक तरफ जा सकता है। 2019 से भी कमजोर हालत में पहुंच चुके विपक्षी गठबंधन और भगवा खेमे को परोक्ष रूप से लाभ पहुंचाने वाली बसपा की नीतियां गुल खिला सकती हैं। ऐसे में 80 में 80 न सही, लेकिन 1984 में जिस तरह 85 में 83 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं, उस तरह का परिणाम नजर आए तो चौंकना भी नहीं चाहिए। हालांकि रोजगार और महंगाई के विपक्ष के मुद्दे 80 में 80 के नारे को पलीता भी लगा सकते हैं।

दरअसल 1984 के आम चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजे आक्रोश और सहानुभूति की लहर के बीच हुए थे। तब कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर लड़ी गई 518 सीटों में 415 और यूपी की 85 लोकसभा सीटों में से 83 पर जीत मिली थी। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यूपी में लोकसभा सीटें 85 से घट कर 80 रह गईं। 84 के कांग्रेस के करिश्मे को यूपी में तो आज तक कोई नहीं दोहरा पाया है। लेकिन, 40 साल बाद राम मंदिर से बन रहे माहौल के बीच हो रहे लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने यूपी के लिए नाराा दिया है, अबकी बार 80 पार। तो यह 80 पार कर 83 या 84 तो हो नहीं सकता, लेकिन 80 में 80 के लक्ष्य के लिए सब कुछ झोंक दिया है। आज के माहौल में कठिन मानी जाने वाली सीटों पर विपक्ष की मुश्किलें बढ़ाने वाले कदम लगातार उठाए जा रहे हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव में सपा को पांच, बसपा को 10 और कांग्रेस को एक सीट मिली थी। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी परंपरागत सीट अमेठी तक केंद्रीय मंत्री स्मृति जूबिन इरानी से हार गए थे। आज भी कई लोग कहते मिल जाते हैं कि कांग्रेस पूरे प्रदेश में कितना लड़ाई दे पाएगी अलग बात है, अमेठी और रायबरेली में तो इस बार भी कड़ी टक्कर दे सकती है। यदि गांधी परिवार से प्रत्याशी आए तो लड़ाई कांटे की होगी।

  • भाजपा ने इन सीटों को कमजोर करने के लिए शुरू में ही ऐसा दांव चला है कि कांग्रेस को प्रत्याशी तय करने में तगड़ी माथापच्ची करनी पड़ रही है। पिछले विधानसभा चुनाव तक इन जिलों में कांग्रेस के भी विधायक हुआ करते थे। वर्तमान में पार्टी का एक भी विधायक नहीं है। ऐसे में सपा से गठबंधन के बाद कांग्रेस को अमेठी और रायबरेली में भी सपा के विधायकों से बड़ी उम्मीद रही होगी। मगर, भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में सपा के असरदार माने जाने वाले दो विधायकों-पूर्व मंत्री मनोज पांडेय और राकेश प्रताप सिंह को अपने पाले में लाकर तहलका मचा दिया। पूर्व मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति की पत्नी महाराजी प्रजापति वोट देने ही नहीं पहुंचीं। ऐसे में कांग्रेस के लिए अब अमेठी और रायबरेली से गांधी परिवार को उतारना किसी चुनौती से कम नहीं है।
  • अलग-अलग क्षेत्र में सपा के मजबूत नेताओं को तोड़कर एनडीए में लाने का प्रयास भी चल रहा है। सपा सरकार में पूर्व मंत्री संजय गर्ग और कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव अजय कपूर जैसे कई नेता लगातार शामिल किए जा रहे हैं।

समाजवादी पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में पांच सीटें हासिल की थीं। तब बसपा और रालोद के साथ गठबंधन था। पश्चिम में सपा की मददगार रही रालोद एनडीए का हिस्सा हो गया है। बसपा फिलहाल अकेले चुनाव लड़ रही है। 2019 के बाद से पूर्वांचल में सपा की मजबूत मददगार रही सुभासपा भी एनडीए का हिस्सा बन गई है।’

  • दारा की वापसी : नोनिया चौहान बिरादरी में पकड़ रखने वाले दारा सिंह चौहान फिर भाजपा में लौट आए हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान दारा सिंह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए थे। 
  • स्वामी प्रसाद सपा से अलग : मौर्य बिरादरी में पकड़ रखने वाले स्वामी प्रसाद सपा से अलग हो गए हैं। दारा की तरह ये भी विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी में चले गए थे। बाद में उपेक्षा का आरोप लगाकर इन्होंने अलग राह पकड़ ली।  भाजपा इन दोनों नेताओं के कदमों से सपा को नुकसान और अपने फायदे की उम्मीद कर रही है।

बसपा ने लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की बात कही है। एनडीए व इंडिया गठबंधन की आमने-सामने की लड़ाई में बसपा का अकेले मैदान में होना कई जगह लड़ाई को त्रिकोणीय बनाएगा। बसपा के टिकटों के लिहाज से इस त्रिकोण का ज्यादा लाभ एनडीए के खाते में जा सकता है।

anita
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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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