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Thursday, May 2, 2024

बिहार में वापसी के लिए भाजपा ने बनाया ये प्लान, नीतीश-तेजस्वी का किला अभेद्य नहीं

बिहार में नीतीश कुमार ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। इस बार वे तेजस्वी यादव के रथ पर सवार हैं। पहली नजर में यही लगता है कि बिहार में जेडीयू-आरजेडी का किला अभेद्य है और मोदी-शाह की भाजपा के पास ऐसा कोई तीर नहीं है, जो इस किले को भेद सके। लेकिन भाजपा नेताओं की मानें तो ऐसा नहीं है। उनके मुताबिक बिहार में परिस्थितियां तेजी से बदली हैं, और उसके पास इन दोनों सूरमाओं को चित्त करने के लिए कई दांव हैं, जिनका प्रयोग कर वह बिहार में एक बार फिर मजबूत होने के लिए तैयार हैं। यदि बिहार में सत्ता जाने के बाद भी भाजपा कार्यकर्ताओं में ‘खुशी’ की लहर देखी जा रही है, तो वह केवल इसी कारण है क्योंकि कार्यकर्ता यही मान रहे थे कि नीतीश कुमार के कारण पार्टी बिहार में खड़ी नहीं हो पा रही थी। उन्हें लगता है कि अब उन्हें खुलकर खेलने का मौका मिलेगा और वे बिहार में मजबूती के साथ वापसी करेंगे। लेकिन नीतीश-तेजस्वी को हराने का भाजपा का प्लान क्या है?

नीतीश की छवि तोड़ेगी भाजपा
नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताकत उनकी छवि रही है। लालू प्रसाद यादव के कथित ‘जंगलराज’ वाले भय और डर के माहौल के बीच वे विकास करने वाले, अपराध और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाले साफ-स्वच्छ छवि के नेता बनकर उभरे थे। अटल बिहारी वाजयेपी-लाल कृष्ण आडवाणी वाली राष्ट्रवादी भाजपा ने अगड़ों के बीच उनकी इस छवि को मजबूत बनाने में बड़ा योगदान दिया था। लेकिन भाजपा नेताओं को लगता है कि 2017 और 2022 के प्रकरण के बाद अब नीतीश कुमार की छवि बुरी तरह ‘डैमेज’ हुई है। वे राज्य में ‘पलटू कुमार’ के रूप में अलोकप्रिय हुए हैं।

भाजपा के साथ सरकार के बीच भी बिहार में नीतीश कुमार अपराध पर लगाम लगाने में नाकाम साबित हुए और प्रशासनिक भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा बढ़ गया था। शराबबंदी का उनका कार्यक्रम भी भ्रष्टाचार की एक बड़ी वजह बनकर उभरा है। भाजपा को लगता है कि इन्हीं मुद्दों के सहारे वह नीतीश कुमार की छवि को तोड़ सकती है। इसकी शुरुआत नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण के दिन ही ‘विश्वासघात दिवस’ मनाने के साथ हो चुकी है।
जातीय समीकरण भी तोड़ेगी भाजपा
बिहार की राजनीति बहुत हद तक ‘मंडल युग’ के दौर से अभी भी नहीं निकल पाई है। यदि तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार आज भी जातिगत जनगणना को अपना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाकर भाजपा के खिलाफ अभियान छेड़ने की रणनीति बना रहे हैं, तो इसके पीछे यही कारण है। महागठबंधन के पास इस समय कुल 59 फीसदी (यादव का 15%, मुसलमानों का 17%, कुर्मी-कोइरी का 11% और दलितों के 16% में एक बड़ा हिस्सा) वोट बैंक है। यह मत प्रतिशत उसे अजेय की स्थिति में पहुंचा देता है।

ध्यान देने वाली बात है कि पिछले चुनाव में कुर्मी-कोइरी के वोटों के बीच नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा के बीच बंटवारा हो गया था। कुशवाहा हर सीट पर पांच-दस से 20 हजार तक वोट पाने में सफल रहे थे, लेकिन बदले माहौल में कुशवाहा भी नीतीश के खेमे में होंगे। लिहाजा इसमें बिखराव नहीं होगा और इसका लाभ गठबंधन को होगा। इसी तरह मुसलमान वोटरों का बंटवारा भी जदयू, आरजेडी और ओवैसी के बीच हो गया था। इस बार यह मत प्रतिशत भी एकजुट रहेगा।

इसके साथ ही आर्थिक तौर पर पिछड़े 26 फीसदी और महिलाओं के वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भी नीतीश कुमार के साथ मजबूती से खड़ा रह सकता है। जाहिर है कि इस परिस्थिति में भाजपा की चुनौती बढ़ जाएगी और उसके लिए बिहार एक बुरे दिवास्वप्न की तरह साबित होगा।

इस तरह तोड़ेंगे ये तिलस्म
बिहार भाजपा नेता सुमित श्रीवास्तव ने अमर उजाला को बताया कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के पक्ष में मजबूत दिख रहे आंकड़े केवल कागजी हैं। सच्चाई यह है कि उपेंद्र कुशवाहा ने पिछले चुनाव में ही कुर्मी-कोइरी वोट बैंक में सेंध लगाकर बता दिया था कि नीतीश कुमार की इस वोट बैंक पर पकड़ इतनी मजबूत नहीं है, जितना कि बताया जाता है। चूंकि, इस बार इसी जाति से आने वाले आरसीपी सिंह अलग पार्टी बनाकर (या भाजपा के साथ आकर, जैसी की आशंका जाहिर की जा रही है) चुनाव लड़ते हैं तो इससे भाजपा को लाभ हो सकता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि नीतीश कुमार की उपस्थिति में ही आरसीपी सिंह को बिहार का अगला मुख्यमंत्री बनाए जाने के नारे लगने लगे थे। ऐसे में यह फैक्टर नीतीश को चोट पहुंचा सकता है।

2015 और 2020 के चुनाव परिणाम और मत प्रतिशत बताते हैं कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी की यादव वोट बैंक पर पकड़ कमजोर हुई है। यह बात लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिले समर्थन से भी साबित हो गई है। माना जाता है कि इसी कमजोरी के कारण पिछले लोकसभा चुनाव में आरजेडी शून्य पर पहुंच गई थी। वह यादवों के अपने गढ़ में पारंपरिक सीटें बचाने में भी कामयाब नहीं हो पाई थी। भाजपा को लगता है कि यदि उसने यादव कार्ड मजबूती के साथ खेला, तो वह लालू यादव के इस किले में बड़ी सेंध लगा सकती है। इसी रणनीति के तहत भाजपा बिहार के यादव नेताओं को लगातार आगे बढ़ा रही है।

इस रणनीति के तहत केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय और लालू परिवार के अहम सदस्य रहे रामकृपाल यादव को प्रदेश में अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। दूसरे राज्यों के यादव नेताओं (जैसे भूपेंद्र यादव, पूर्व प्रदेश प्रभारी) को भी मजबूती से राज्य में उतारा जा सकता है। राज्य के शिया मुसलमानों और पसमांदा मुसलमानों में नेतृत्व उभारकर मुसलमान वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति पर भी पार्टी विचार कर रही है। पार्टी नेता शाहनवाज हुसैन पहले ही राज्य में उतारे जा चुके हैं।

चिराग लौटेंगे, फ्लोटिंग ईबीसी वोटर आएंगे साथ
दलितों में महादलित और पिछड़ों में अतिपिछड़ों का कार्ड भी मजबूती के साथ खेलकर आरजेडी की पकड़ कमजोर की जा सकती है। इस समय भाजपाई खेमे से बाहर जा चुके चिराग पासवान यदि भाजपाई खेमे में लौट आते हैं, तो इससे वे दलितों के बीच पकड़ बनाने में अच्छी मदद कर सकते हैं। बिहार में 26 फीसदी आर्थिक तौर पर पिछड़े फ्लोटिंग मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा है, जो मुद्दों के अनुसार कभी नीतीश कुमार तो कभी दूसरे दलों को समर्थन देता रहा है। भाजपा इन्हें अपने साथ जोड़ने का काम कर सकती है।

राज्य में 15 फीसदी उच्च जाति का वोट बैंक भी है, जो पूरी मजबूती के साथ भाजपा के साथ खड़ा रहा है। केंद्र सरकार इन वर्गों के लिए विशेष योजनाएं लाकर उन्हें मजबूती के साथ अपने खेमे में लाने का काम करती रही है, इस योजना को और मजबूती दी जा सकती है। पार्टी का यह दांव उत्तर प्रदेश सहित देश के सभी राज्यों में कारगर साबित हुआ था। बदले माहौल में भाजपा इसे और मजबूती के साथ खेल सकती है जिससे यह वर्ग भाजपा के साथ आ सकता है और बिहार विजय का भाजपा का सपना साकार हो सकता है।

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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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