बीते चार महीनों में नीतीश ने कई बार अपनी नाराजगी का संदेश दिया… विधानसभा सत्र के दौरान उनकी स्पीकर से कहासुनी हुई। वे केंद्र सरकार के आयोजनों से दूरी बनाए हुए थे। दो दिन पूर्व नीति आयोग की बैठक में नहीं आए। राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण और निवर्तमान राष्ट्रपति के विदाई समारोह से भी दूर रहे। गृह मंत्री अमित शाह की बैठक में भी शामिल नहीं हुए। नाराजगी इतनी बढ़ेगी कि गठबंधन टूट जाएगा, ऐसा भाजपा ने सोचा भी नहीं होगा। बहरहाल, आज यानी बुधवार दोपहर दो बजे आयोजित सीएम और डिप्टी सीएम के शपथग्रहण समारोह के साथ ही बिहार में नई सरकार की कवायद शुरू हो जाएगी।
सरकार में फ्री हैंड नहीं मिलने से भी नाराज थे नीतीश
भाजपा को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नाराजगी का अंदाजा था, मगर पाला बदलने की भनक तक उसे नहीं लग पाई। वह जदयू से लगातार मिल रहे संकेतों को भांपने में बुरी तरह चूक गई। खासतौर से आरसीपी सिंह मामले में पैदा हुए विश्वास के संकट ने दोनों दलों के बीच खाई और चौड़ी कर दी।
नीतीश की भाजपा से नाराजगी नई नहीं थी। इसका सिलसिला विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान के भाजपा के पक्ष और जदयू के विरोध में ताल ठोकने से शुरू हो गया था। भाजपा के मुकाबले जदयू के आधी सीटों पर सिमटने, सरकार चलाने में फ्री हैंड नहीं मिलने, विधानसभा अध्यक्ष और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के लगातार सरकार पर हमला करने से नीतीश की नाराजगी बढ़ गई।
ताबूत में अंतिम कील साबित हुए आरसीपी
नाराजगी के बीच जब आरसीपी केंद्र में मंत्री बने तो नीतीश का सब्र टूट गया। जदयू नेताओं का कहना है, नीतीश की सहमति के बिना आरसीपी मंत्री बने। बाद में नीतीश ने उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं दिया तो उन्होंने जदयू विधायकों से संपर्क साधना शुरू किया। नीतीश को लगा कि इसके पीछे भाजपा है। जदयू ने कई बार भाजपा पर जदयू में मतभेद पैदा करने का आरोप लगाया।
जुदाई के और भी थे कारण
जुदाई में एक अहम कारण जदयू के वोट बैंक में भाजपा की एंट्री थी। कभी भाजपा का आधार राज्य के अगड़ों तक ही सीमित था। हालांकि बाद में पार्टी ने दलितों और गैरयादव पिछड़ों में भी अपनी पैठ बढ़ाई।
महादलित और गैरयादव पिछड़ा के साथ पसमांदा मुसलमान जदयू के कोर वोटर रहे हैं।
भाजपा से गठबंधन के बाद भी पसमांदा वोट जद-यू को मिलता रहा लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर मोदी के आने के बाद यह वोट बैंक राजद में चला गया। वहीं जदयू के दूसरे वोट बैंक में भाजपा ने घुसपैठ कर ली। इससे नीतीश परेशान थे।
टकराव पर उदासीन रहा शीर्ष नेतृत्व
बिहार में अरसे से जारी टकराव के बीच भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उदासीन रहा। सरकार में रहते भाजपा के नेता लगातार नीतीश पर निशाना साध रहे थे, मगर पार्टी नेतृत्व इस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर रहा था। पिछले महीने पटना में आयोजित भाजपा के राष्ट्रीय मोर्चाओं की बैठक के बाद जरूर केंद्रीय नेतृत्व ने हालात संभालने की कोशिश की। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
जनादेश का अपमान किया
जनादेश राजग के पक्ष में था। जदयू को आधी सीटें मिलने के बाद भी भाजपा ने गठबंधन धर्म का सम्मान करते हुए नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया। इसके बावजूद जदयू ने पाला बदल कर जनादेश का अपमान किया है। भाजपा पूरे राज्य में नीतीश के खिलाफ अभियान चलाएगी। – संजय जायसवाल, प्रदेश अध्यक्ष, भाजपा
लोकसभा चुनाव होगा टर्निंग प्वाइंट
आगामी लोकसभा चुनाव राज्य की सियासत के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकता है। साल 2014 में भी जदयू के अलग होने के बाद भी भाजपा-लोजपा गठबंधन को राज्य में जबर्दस्त जीत हासिल हुई थी। भाजपा को लगता है कि ऐसा ही साल 2024 में होगा।
संसद पर भी पड़ सकता है बदली सियासत का असर, राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश हैं जदयू सांसद
बिहार के बदलती राजनीतिक समीकरण का असर संसद पर भी पड़ना तय माना जा रहा है। राज्यसभा को नए सभापति जगदीप धनखड़ के साथ नए उप सभापति का चेहरा भी देखना पड़ सकता है। उच्च सदन के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह जदयू के राज्यसभा सदस्य हैं। राज्यसभा ने हरिवंश को 14 सितंबर, 2020 को दूसरी बार उप सभापति चुना था।
राजनीति विशेषज्ञों का मानना है कि नीतीश कुमार ने जिस कड़े तेवर के साथ बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने का एलान किया है, संभव है कि वह हरिवंश को उप सभापति पद से इस्तीफा देने को कहें। दूसरी संभावना है कि उप सभापति पद के मामले में वह गेंद अमित शाह और नरेंद्र मोदी के पाले में डाल दें।
जानकारों के मुताबिक इस हालत में भाजपा को हमेशा यह संशय बना रहेगा कि नाजुक वक्त में हरिवंश केंद्र सरकार के साथ खड़े रहेंगे या नहीं। उधर नीतीश कुमार भी यह भांपना चाहेंगे कि हरिवंश का अपना रुख कैसा रहता है। कहीं वह भी आरसीपी सिंह की तरह भाजपा के साथ सांठ-गांठ कर बड़े राजनीतिक फसल की जमीन तो नहीं तैयार करेंगे।
जानकारों के मुताबिक अगर भाजपा हरिवंश को हटाना चाहे तो उसके सामने दो ही रास्ते हैं। या तो हरिवंश खुद इस्तीफा दे दें। या फिर कानून या संसदीय नियमों के गंभीर उल्लंघन के आरोप में उच्च सदन दो तिहाई वोटों से उन्हें हटाने की प्रक्रिया पूरी करे। हालांकि हरिवंश जैसी साफ छवि वाले उप सभापति को हटाने के लिए बहुमत जुटा पाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
पस्त विपक्ष के लिए उम्मीद की किरण, भाजपा से दो-दो हाथ करने के लिए जगेगा नया आत्मविश्वास
भाजपा को अजेय मान कर पस्त हो चुके विपक्ष के लिए बिहार का घटनाक्रम उम्मीद की नई किरण की तरह है। इस नए घटनाक्रम के बाद हिंदी पट्टी क्षेत्र में सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को हवा मिलने और भाजपा के कोर एजेंडे मसलन जनसंख्या नियंत्रण, समान नागरिक संहिता, एनआरसी जैसे मुद्दों पर नए सिरे से सियासी संघर्ष की शुरुआत होने की संभावना है। इनमें खासतौर पर जातिगत जनगणना के सवाल पर हिंदी पट्टी क्षेत्र में नए सिरे से सियासी अभियान की शुरुआत हो सकती है।
गौरतलब है कि चुनाव दर चुनाव मिल रही हार, महाराष्ट्र में हालिया सत्ता परिवर्तन ने कांग्रेस, टीएमसी, सपा सहित विपक्षी दलों के आत्मविश्वास को गहरा झटका दिया था। खासतौर पर महाराष्ट्र में शिवसेना में फूट के बाद राज्य की सत्ता से महाविकास अघाड़ी सरकार की विदाई के बाद से विपक्ष सन्न था, जबकि भाजपा का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर था। हालांकि बिहार के घटनाक्रम से विपक्ष में अब नए सिरे से आत्मविश्वास जगेगा।
सरकार के प्रदर्शन से तय होगा भविष्य
हालांकि अहम सवाल बिहार की नई सरकार में तालमेल और प्रदर्शन का है। अगर सरकार अपनी साख मजबूत करने में सफल रहती है तो नीतीश विपक्ष की राजनीति की धुरी बनने निकल सकते हैं। स्थिति उलट हुई तो विपक्षी राजनीति की बची खुची उम्मीदें भी दम तोड़ देंगी।
हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को मिलेगी नई हवा
बिहार में नए सामाजिक समीकरण के बाद हिंदी पट्टी क्षेत्र में सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को नए सिरे से अहमियत मिल सकती है। खासतौर पर बिहार में सत्ताधारी गठबंधन और हिंदी पट्टी की विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना के सवाल को प्रमुखता देगी।
बिहार में वैसे भी जदयू और राजद इस मुद्दे पर अरसे से मुखर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों के विपक्षी दल भी इस मुद्दे को समय-समय पर उठाते रहे हैं। इसके अलावा भाजपा के मूल एजेंडे से जुड़े मुद्दों पर भी विपक्ष और सरकार के बीच नए सिरे से दो-दो हाथ हो सकता है।