नई दिल्ली, 5 मई 2025, सोमवार। भारत की न्याय व्यवस्था में एक ऐतिहासिक फैसले ने देशभर में हलचल मचा दी है। एनआईए कोर्ट के विशेष न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने न केवल कासगंज हत्याकांड के 28 दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, बल्कि एक गंभीर और अनछुए मुद्दे पर भी अपनी बेबाक राय रखी। यह मुद्दा है – राष्ट्रीय और विदेशी एनजीओ द्वारा अपराधियों को बचाने के लिए महंगे वकीलों की नियुक्ति और इसके पीछे छिपी साजिश।
कासगंज हत्याकांड और साहसी फैसला
3 जनवरी 2025 को जस्टिस त्रिपाठी ने 26 जनवरी 2018 को कासगंज में अभिषेक उर्फ चंदन गुप्ता की नृशंस हत्या के मामले में 28 आरोपियों को दोषी ठहराया। चंदन की हत्या तिरंगा यात्रा के दौरान मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों द्वारा की गई थी। इस फैसले ने न केवल पीड़ित परिवार को न्याय दिलाया, बल्कि एक बड़े सवाल को भी उजागर किया – आखिर कौन है जो ऐसे अपराधियों को बचाने के लिए मोटी रकम खर्च कर रहा है?
एनजीओ और वकीलों का गठजोड़
जस्टिस त्रिपाठी ने अपने आदेश में सात एनजीओ और संगठनों पर सवाल उठाए, जिनमें मुंबई का न्याय और शांति के लिए नागरिक, दिल्ली का पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, न्यूयॉर्क का न्याय और जवाबदेही के लिए गठबंधन, और वाशिंगटन डीसी का भारतीय अमेरिकी मुस्लिम परिषद शामिल हैं। उन्होंने कहा कि इन संगठनों की फंडिंग और उनके उद्देश्यों की गहन जांच जरूरी है। कोर्ट ने यह भी बताया कि आतंकी हमलों या अपराधों के मामलों में ये एनजीओ तुरंत महंगे वकीलों को नियुक्त करते हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है।
जस्टिस त्रिपाठी ने अपने आदेश की प्रति केंद्रीय गृह मंत्रालय और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजकर इस मुद्दे पर तत्काल कार्रवाई की मांग की। उन्होंने सुझाव दिया कि वकीलों की फीस और संपत्ति का विवरण सार्वजनिक किया जाए, उनकी फीस केवल बैंकिंग चैनलों के माध्यम से ली जाए, और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों से शपथ पत्र मांगा जाए कि उनकी फीस का स्रोत क्या है। यह कदम यह सुनिश्चित करेगा कि कोई आतंकी संगठन इन वकीलों को फंडिंग नहीं कर रहा।
रोहिंग्या घुसपैठ और लंबित याचिकाएं
यह मुद्दा केवल कासगंज तक सीमित नहीं है। वकील अश्विनी उपाध्याय की रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश से बाहर करने की याचिका 2017 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। हैरानी की बात यह है कि दो रोहिंग्या व्यक्तियों, मोहम्मद सलीमुल्लाह और मोहम्मद शाकिर, जिनका जीवन स्तर सामान्य है, उनके लिए छह शीर्ष वकील – राजीव धवन, प्रशांत भूषण, अश्विनी कुमार, कॉलिन गोंसाल्वेस, फली नरीमन और कपिल सिब्बल – सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए। सवाल उठता है कि इन वकीलों की फीस कौन वहन कर रहा है?
इसी तरह, उपाध्याय की जबरन धर्मांतरण और पूजा स्थल कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं का भी कई शीर्ष वकील विरोध कर रहे हैं, जिनमें पूर्व मंत्री और सांसद शामिल हैं। इन याचिकाओं के लंबित रहने का कारण क्या है? क्या यह पैसा और प्रभाव का खेल है?
एनजीओ की भूमिका पर सवाल
अक्टूबर 2024 में, सोशल ज्यूरिस्ट्स नामक एनजीओ ने दिल्ली हाई कोर्ट में रोहिंग्या बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों में प्रवेश देने की मांग की। हाई कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि रोहिंग्या अवैध विदेशी हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं। इसके बावजूद, एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सवाल यह है कि इन एनजीओ को इतने बड़े पैमाने पर कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए फंडिंग कहां से मिल रही है?
एक ऐतिहासिक कदम और देशवासियों की जिम्मेदारी
जस्टिस त्रिपाठी का यह फैसला न केवल न्यायपालिका के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक जागृति का आह्वान है। यह समय है कि हम उन ताकतों को उजागर करें जो राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल रही हैं। एनजीओ और वकीलों के इस गठजोड़ की जांच होनी चाहिए, और उनकी फंडिंग के स्रोत को पारदर्शी करना होगा।
हर देशभक्त भारतीय को इस ऐतिहासिक आदेश का समर्थन करना चाहिए। यह सिर्फ एक फैसला नहीं, बल्कि एक क्रांति की शुरुआत है, जो देश को उन ताकतों से मुक्त कराएगी जो इसे अंदर से कमजोर करने की कोशिश कर रही हैं। आइए, हम सब मिलकर इस साहसी कदम का स्वागत करें और एक सुरक्षित, मजबूत भारत के निर्माण में योगदान दें!