हसमुख उवाच
आजकल जहां भी देखो,जिधर भी देखो उधर कयी ऐसे लोग मिल जाते हैं जो जवान दिखने के रोग से पीड़ित हैं, ऐसे लोगो को पता ही नहीं चलता कि उनकी जवानी कब की बाय बाय करके जा चुकी है, ऐसे लोगो को कोई युवती यदि अंकल कह दे तो उन्हें बड़ा नागवार गुजरता है, युवक या युवती के अंकल कहने पर वो अपने होठ भींच लेते हैं, या तो युवती की तरफ देखते ही नहीं या फिर मौन हो कर युवक या युवती को घूरने लगते हैं, अपने को उम्रदराज मानने की बात उनके गले उतर नही पाती, इस बात पर कभी तू-तू मैं-मैं भी होने लगती है!
दो समधी मिले, बड़े प्रेम से मिले, बातें करने लगे, अचानक दोनों में झगड़ा हो गया, वजह सिर्फ इतनी थी कि एक समधी ने दूसरे समधी को अंकल कह दिया था, एक घर में सास ने अपनी पुत्र वधू का इसी बात पर जीना हराम कर दिया क्योंकि पुत्रवधू ने उन्हेंं ‘मा जी कह दिया, सासू जी चाहती थी कि उनकी पुत्रवधू उन्हें ‘दीदी’ कहे! आजकल आने वाले बुढ़ापे से हर कोई डरता है, यही से जवान दिखने का रोग पैदा होता है। इसके लिये पहला उपाय यही आजमाया जाता है कि सफेद बालों का नामोनिशान मिटाने के लिये बालों को काले रंग से रंग दिया जाए, जब बालों पर डाई लग जाती है तो बड़े गर्व से शीशे में अपनी सूरत को निहारा जाता है, और यदि किसी ने कह दिया कि_’सर, आप तो अब भी कम ऐज के दिखते है ‘तो समझ लो डाई के पैसे वसूल हो गये!
प्रबुद्घ वर्ग भी इस रोग से अछूता नहीं रहा है, देखने निकलो तो कयी खिजाबिया संपादक, लेखक, और कवि मिल जांएगे, आने वाला बुढ़ापा उनके मन में और सिर पर आंतक की तरह सवार रहता है!
कुछ संपादक तो नालायक कवियों की रचनाएं भी इसलिए छाप देते हैं क्योंकि उस नालायक कवि की दृष्टि में संपादक जी अब भी यंग दिखते है, एक मातहत ने अपने बास की तारीफ में यह कह दिया कि _’साहब तो अब भी जवान से ही हैं, ‘उस मातहत का बास ने खुश हो कर उसका प्रमोशन कर दिया, अधेड़ या बूढे हो रहे लोगों को ऐसी तारीफ च्यवन प्राश से भी ज्यादा उर्जा प्रदान करती है।
राजनीति के क्षेत्र में भी ५३साल के नेताओं को उनके चमचे युवा नेता कह कर संबोधित करते है, ५३साल का नेता भी जानता है कि वह अधेड़ावस्था को प्राप्त हो चुका है फिर भी मूर्ख लोगों की बात से वह खुश होने की मूर्खता करता है! सच को स्वीकार करना हर किसी के बस की बात नहीं होती, जवानी आती है और चुपके चुपके चली जाती है, लोगों को भ्रम रहता है कि उनकी जवानी अब भी है, और इस झूठ को सत्य बनाने के लिये वो जवान दिखने का प्रदर्शन करने लगते हैं, सत्य को मानने में उन्हें बड़ी पीडा होती है इसलिए वे जवान दिखने के रोग से पीड़ित हो जाते हैं, कोई अंकल कहे उन्हें अच्छा नहीं लगता, कोई बहू पैर छुए तो भी बुरा लगता है, बुढ़ापे का पता भी तब लगता है जब उनकी औलादें उन्हें वृध्दाश्रम में पहुचा देती है, तब अपने जवान होने के भ्रम और अहसास को धक्का लगता है, ऐसे लोगो को समझाने के लिये किसी ने लिखा है कि ‘बुढ़ापे की मासूमियत को तुम भला क्या जानो,यहीं आकर के मंजिल का पता मालूम होता है। ‘
समाप्त,
बंशीधर चतुर्वेदी,
व्यंग्यकार, लेखक,मंच कलाकार