संसद के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन सरकार ने विपक्ष के हो-हंगामे के बीच तीन कृषि कानूनों की वापसी वाला विधेयक संसद से पारित करा लिया। लेकिन विपक्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानून बनाने की मांग पर अड़ा है।
किसान संगठन भी यही मांग कर रहे हैं कि सरकार एमएसपी पर गारंटी कानून बनाए। तीन कृषि कानून वापस लिए जाने के पीएम के फैसले के बाद भी किसानों ने इसी वजह से किसान आंदोलन खत्म नहीं किया है। किसानों ने अब एमएसपी कानून को लेकर सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
किसान एमएसपी के लिए कानून की मांग क्यों कर रहे हैं?
एमएसपी की घोषणा सबसे पहले 1966-67 में गेहूं के लिए की गई थी। बाद में दूसरी फसलों को बढ़ावा देने के लिए एमएसपी का दायरा बढ़ा दिया गया। मौजूदा समय में 23 फसलों पर एमएसपी मिलता है। जिसमें सात अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ), पांच तरह की दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), सात तिलहन (सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल, कुसुम और नाइजरसीड) और चार व्यावसायिक फसलें (गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट) शामिल है। एमएसपी के आधार पर ही केंद्र और राज्य सरकारों की एजेंसियां फसलों की खरीद करती हैं।
कैसे तय होता है एमएसपी ?
भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय से जुड़ा कार्यालय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी एमएसपी तय करती है। यह आयोग जनवरी 1965 में बना था। आयोग खेती की लागत के आधार पर फसलों की न्यूनतम कीमत तय करके अपने सुझाव सरकार के पास भेजता है। सरकार इन सुझावों पर अध्ययन करने के बाद एमएसपी पर फैसला करती है। हर साल खरीफ और रबी सीजन के लिए एमएसपी तय किया जाता है। उसके बाद सरकारी एजेंसियां एमएसपी पर फसलों को खरीदती है।
गन्ने में यह नियम पहले से ही लागू है। कानूनी तौर पर चीनी मिलों के लिए यह जरूरी है कि वे किसानों को गन्ने के लिए केंद्र के “उचित और लाभकारी मूल्य” का भुगतान करें। कुछ राज्य सरकारें तथाकथित “सुझाए गए मूल्य” से भी अधिक भुगतान करती हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत जारी गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1966 के तहत गन्ना खरीद के 14 दिनों के भीतर कानूनी रूप से गारंटी वाले मूल्य का भुगतान किया जाता है।
एमएसपी का फायदा क्या
एमएसपी तकनीकी रूप से सभी खेती लागतों पर न्यूनतम 50 फीसदी रिटर्न सुनिश्चित करता है। किसानों को इसका सबसे बड़ा फायदा यह मिलता है कि यदि फसल का भाव गिर भी जाता है तो सरकार एमएसपी पर किसानों से फसल खरीदती है। एक तरह से एमएसपी के जरिए किसानों को अधिक फसल उपजाने के लिए प्रेरित किया जाता है।
कितने किसानों को मिलता है फायदा
सामान्यतया, एमएसपी केवल चार फसलों (गन्ना, धान, गेहूं और कपास) में प्रभावी माजा जाता है। बाकी फसलों पर एमएसपी की बात काफी हद तक कागजों पर मानी जाती है। भारत के अधिकांश हिस्सों में उगाई जाने वाली ज्यादतर फसलों में, किसानों को विशेष रूप से फसल के समय प्राप्त होने वाली कीमतें आधिकारिक तौर पर घोषित एमएसपी से काफी कम होती हैं। फल, सब्जियां और पशुओं से होने वाले उत्पाद, एमएसपी के दायरे से बाहर हैं, जबकि बड़ी संख्या में किसान फल-सब्जियां उगाते हैं और पशुओं के उत्पादों पर निर्भर है। जिनकी कुल कृषि उत्पदान में करीब 45 फीसदी हिस्सेदारी है।
2015 में आई शांता कुमार कमेटी के मुताबिक महज छह फीसदी किसानों को एमएसपी का फायदा मिलता है। यानी 94 फीसदी किसान एमएसपी से कम कीमत पर अपनी फसल बेचने को मजबूर हैं। इसी तरह पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की एक रिपोर्ट भी बताती है कि 2019-20 में 23 फसलों में एमएसपी पर 80 फीसदी खरीद केवल चावल और गेहूं की हुई थी। दूसरी तरफ यह माना जाता है कि छोटे किसान एमएसपी पर अपनी फसल बेच ही नहीं पाते हैं। बिचौलिये किसान से कम दामों पर फसल खरीद लेते हैं और बाद में एमएसपी का फायदा उठाते हैं।
अनुमान है कि पूरे देश में लगभग 30 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इसमें सरकार अधिकतम 10 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न की ही खरीद करती है। बाकी के खाद्यान्न में से कुछ किसान अपने परिवार के लिए रखता है और बाकी को खुले बाजार में बेच देता है।
इसकी बड़ी वजह यह मानी जाती है कि चूंकि एमएसपी को कोई वैधानिक समर्थन हासिल नहीं है, इसलिए किसान इसे अधिकार के रूप में मांग नहीं सकते हैं। इसलिए किसान संगठन चाहते हैं कि मोदी सरकार एमएसपी को अनिवार्य दर्जा देने वाला कानून बनाए। 2004 में कृषि सुधारों के लिए बने स्वामीनाथन आयोग एमएसपी तय करने के लिए सरकार को कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। आयोग ने सिफारिश की थी कि एमएसपी औसत उत्पादन लागत से कम से कम 50 फीसदी अधिक होना चाहिए। अगर सरकार किसान संगठनों की बात मान लेती है और एमएसपी को कानूनी अधिकार बना देती है तो इसका भुगतान खुले बाजार को करना होगा। इस तरह 94 फीसदी किसानों को भी इसका फायदा मिल सकता है।
सरकारें क्यों बचती रही है?
एक कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक, एमएसपी को कानूनी अधिकार बना दिए जाने का सबसे बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि किसान केवल उन्हीं फसलों को उगाने की बात सोचेगा जिसमें उसे आसानी से लाभ मिलेगा। इससे देश को उन फसलों की कमी झेलनी पड़ सकती है जिसकी देश में ज्यादा आवश्यकता है। दूसरी तरफ उन अनाजों का भंडार जमा हो जाएगा जो देश में पहले से ज्यादा है, जैसे धान और गेहूं।
यही वजह है कि सरकारें इससे बचती रही हैं। इसकी दूसरी बड़ी वजह यह है कि कानून बनने के बाद अगर सभी 23 फसलों की खरीद एमएसपी पर करनी पड़े तो अनुमान है कि सरकार को इसके लिए करीब 17 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करने पड़े सकते हैं। दूसरी तरफ एमएसपी के दायरे में आने वाले 23 फसलों के बाहर के फसल का उत्पादन करने वाले किसान भी इसकी मांग करेंगे।