वाराणसी, 7 अगस्त 2025। एक पिता, जो खुद को डाक्टर कहता था, अपनी ही बेटी की जान के साथ खिलवाड़ करता रहा। रामनगर में दस साल से दवाखाना चलाने वाला यह शख्स बिना किसी मेडिकल डिग्री के मरीजों को ‘इलाज’ का झांसा देता था। लेकिन जब उसकी 15 साल की बेटी रोशनी (बदला हुआ नाम) बीमार पड़ी, तो उसकी लापरवाही ने एक मासूम की जिंदगी को कगार पर ला खड़ा किया। यह कहानी न सिर्फ एक पिता की भूल की है, बल्कि उन हजारों झोलाछाप डाक्टरों की हकीकत बयां करती है, जो बिना योग्यता के लोगों की जिंदगी से खेल रहे हैं।
एक पिता की जिद और बेटी की सांसे
दो महीने पहले रोशनी को तेज बुखार हुआ। पिता ने उसे एंटीबायोटिक्स दीं, लेकिन हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती गई। खांसी, खून की उल्टी, रात में पसीना, और कमजोरी ने रोशनी को तोड़कर रख दिया। उसका वजन 10 किलो कम हो गया, सांसें घुटने लगीं। फिर भी पिता ने उसे पास के सरकारी अस्पताल ले जाने के बजाय नीली-पीली गोलियों से ‘इलाज’ करने की जिद पकड़े रहा। 50 दिन बाद जब रोशनी की हालत गंभीर हो गई, तब जाकर वह उसे बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल ले गया।
एक्स-रे और जांच में पता चला कि रोशनी को टीबी (ट्यूबरकुलोसिस) है। फेफड़े कमजोर हो चुके थे, और संक्रमण शरीर के दूसरे हिस्सों में फैलने लगा था। रामनगर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ने उसे डाट्स थेरेपी शुरू की। दो महीने में निशुल्क दवाओं और नियमित जांच से रोशनी अब धीरे-धीरे ठीक हो रही है। लेकिन सवाल यह है कि अगर समय पर सही इलाज शुरू हो जाता, तो क्या रोशनी को इतनी तकलीफ झेलनी पड़ती?
झोलाछाप डाक्टरों का जाल
यह सिर्फ रोशनी की कहानी नहीं है। वाराणसी में करीब 5,500 गैर-पंजीकृत झोलाछाप डाक्टर लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की फाइलों में सिर्फ 750 पंजीकृत डाक्टर दर्ज हैं। गांव-शहरों में फैले ये फर्जी डाक्टर मरीजों को ‘स्वस्थ जिंदगी’ का सपना दिखाकर मौत के मुंह में धकेल रहे हैं।
बीएचयू के जनरल मेडिसिन विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. संतोष कुमार सिंह कहते हैं, “टीबी पूरी तरह ठीक होने वाली बीमारी है, बशर्ते समय पर इलाज शुरू हो। इस केस में देरी ने हालत बिगाड़ दी। अगर पिता ने सरकारी स्वास्थ्य केंद्र का रुख किया होता, तो 100 रुपये के एक्स-रे से बीमारी पकड़ में आ जाती।”
और भी हैं दर्दनाक कहानियां
- केस 1: सेवापुरी के 74 साल के रामनाथ को रक्तचाप की शिकायत थी। गांव के एक झोलाछाप ने 1250 रुपये में 16 दवाएं थमा दीं। नतीजा? गंभीर एलर्जी, त्वचा पर छाले, और जलन। आखिरकार उन्हें बीएचयू में भर्ती करना पड़ा।
- केस 2: छितौनी गांव के 17 साल के मोहम्मद साहिल को डेंगू हुआ। एक झोलाछाप के गलत इलाज ने उसकी जान ले ली। ग्रामीणों का कहना है कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में उन्हें ऐसे फर्जी डाक्टरों के पास मजबूरी में जाना पड़ता है।
कानून का ढीला रवैया
भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम के तहत बिना मान्यता प्राप्त डिग्री के इलाज करना गैरकानूनी है। दोषी को सात साल की सजा और जुर्माना हो सकता है। क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट भी अस्पतालों और क्लीनिकों का पंजीकरण अनिवार्य करता है। फिर भी, ये फर्जी डाक्टर बेखौफ दवाखाने चला रहे हैं।
रास्ता क्या है?
डा. मंगला सिंह, अपर निदेशक, चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, वाराणसी मंडल, का कहना हैं, “फर्जी अस्पतालों और क्लीनिकों पर रोक के लिए सभी सीएमओ को निर्देश दिए गए हैं।” लेकिन यह काफी नहीं है। जरूरत है:
- लोगों को जागरूक करने की, ताकि वे केवल पंजीकृत डाक्टरों से इलाज करवाएं।
- गांव-गांव में योग्य डाक्टर और क्लीनिक की सुविधा बढ़ाने की।
- फर्जी डाक्टरों पर सख्त निगरानी और कड़ी सजा लागू करने की।
आप क्या करें?
अगर आपको किसी फर्जी डाक्टर पर शक हो, तो तुरंत स्थानीय स्वास्थ्य विभाग या पुलिस में शिकायत करें। अपनी और अपनों की जिंदगी को झोलाछाप डाक्टरों के झोले में न घुटने दें। समय पर सही इलाज ही जिंदगी की गारंटी है।