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Thursday, August 7, 2025

उत्तराखंड आपदा: वरिष्ठ पत्रकार अनिता चौधरी की बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट से खास बातचीत – प्रकृति की चेतावनी और राहत के प्रयास

देहरादून, 7 अगस्त 2025, गुरुवार: उत्तराखंड, जिसे ‘देवभूमि’ के नाम से जाना जाता है, एक बार फिर प्रकृति के प्रकोप की चपेट में है। उत्तरकाशी के धराली गांव में बादल फटने से मची भारी तबाही ने एक बार फिर इस खूबसूरत पहाड़ी राज्य की नाजुक पर्यावरणीय स्थिति को उजागर किया है। गांव जलमग्न, सड़कें बंद, और भयावह तस्वीरें दिल दहला रही हैं। इस आपदा ने न केवल स्थानीय लोगों की जिंदगी को अस्त-व्यस्त किया है, बल्कि यह सवाल भी उठाया है कि क्या हम प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम हो रहे हैं?

तबाही का मंजर और राहत के प्रयास

धराली में मंगलवार दोपहर बादल फटने से हुए भूस्खलन ने पूरे इलाके को मलबे और पानी के सैलाब में डुबो दिया। हरी शिला पर्वत के सात ताल क्षेत्र से निकलने वाली खीर गंगा के उफान ने धराली और हर्षिल के तेल गाट इलाके को अपनी चपेट में लिया। इस हादसे में सेना का एक कैंप भी प्रभावित हुआ, जिसमें 10 जवान और एक जेसीओ के लापता होने की आशंका है। अब तक 4 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 130 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाला जा चुका है।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने स्वयं घटनास्थल का दौरा किया और राहत कार्यों की निगरानी की। सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आईटीबीपी की टीमें युद्धस्तर पर बचाव कार्य में जुटी हैं। बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद महेंद्र भट्ट ने बताया कि सेना ने दुर्गम इलाकों में रास्ता बनाकर 130 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाला है। हालांकि, मलबे में दबे लोगों की तलाश अब भी जारी है, और इसके लिए हेलीकॉप्टर व मशीनों का सहारा लिया जा रहा है। स्वास्थ्य टीमें भी अलर्ट पर हैं ताकि घायलों को तुरंत सहायता मिल सके।

प्रकृति का प्रकोप: एक चेतावनी

वरिष्ठ पत्रकार अनिता चौधरी से बातचीत में महेंद्र भट्ट ने उत्तराखंड की भौगोलिक और पर्यावरणीय चुनौतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “उत्तराखंड में सीमित भूखंड के कारण निर्माण कार्यों में पर्यावरण का ध्यान रखना जरूरी है, लेकिन हाल के वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ी है।” बादल फटने और भूस्खलन जैसी घटनाओं का कोई वैज्ञानिक समाधान अभी तक नहीं ढूंढा जा सका है। भट्ट ने 2013 की केदारनाथ त्रासदी और 2012 व 2023 की घटनाओं का जिक्र करते हुए बताया कि नदियों के किनारे अतिक्रमण रोकने के निर्देशों का पालन नहीं हुआ, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी आपदाएं बार-बार हो रही हैं।

उन्होंने जोर देकर कहा कि अब नदियों के दायरे में निर्माण पर सख्ती बरती जाएगी। साथ ही, पहाड़ों पर बढ़ते भूस्खलन का कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को बताया। “पेड़ पहाड़ों को स्थिर रखते हैं, लेकिन अनियोजित निर्माण और वनों की कटाई ने स्थिति को और गंभीर किया है,” भट्ट ने चिंता जताई।

प्रकृति की मार और मानवीय गलतियां

यह आपदा केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवजनित कारणों का भी परिणाम है। नदियों के किनारे अतिक्रमण, अनियोजित निर्माण और जंगलों की कटाई ने उत्तराखंड को आपदाओं के प्रति और संवेदनशील बना दिया है। भट्ट ने बताया कि केदारनाथ त्रासदी के बाद यह सबसे बड़ी आपदा है, लेकिन बारिश के कारण लोगों के घरों में रहने से एक बड़ा हादसा टल गया। उन्होंने कहा, “अगर मौसम साफ होता और लोग बाजार में होते, तो नुकसान और भयावह हो सकता था।”

केंद्र और राज्य का सहयोग

महेंद्र भट्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि वह स्वयं स्थिति पर नजर रखे हुए हैं और केंद्र से हर संभव मदद मिल रही है। उन्होंने 2013 की केदारनाथ त्रासदी के दौरान तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के योगदान को भी याद किया। भट्ट ने कहा, “मोदी जी उस समय भी उत्तराखंड के लिए ईश्वर के रूप में सामने आए थे, और आज भी वह हमारा साथ दे रहे हैं।”

विपक्ष के आरोप और जवाब

कांग्रेस नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बीजेपी सरकार पर आपदा प्रबंधन में नाकाम रहने का आरोप लगाया। जवाब में भट्ट ने कहा, “यह राजनीति का समय नहीं है। विपक्ष को मुश्किल घड़ी में सहयोग करना चाहिए।” टिहरी बांध के प्रभाव पर उठे सवालों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि बांध देश के लिए बिजली का महत्वपूर्ण स्रोत है, और इसके बादलों को नियंत्रित करने के लिए वैज्ञानिक योजनाएं बनाई जा रही हैं।

आगे की राह: प्रकृति के अनुरूप विकास

उत्तराखंड की यह त्रासदी केवल एक घटना नहीं, बल्कि हमारे विकास मॉडल और प्रकृति के प्रति लापरवाही का परिणाम है। बार-बार आने वाली आपदाएं हमें चेतावनी दे रही हैं कि अब समय है प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने का। अनियोजित निर्माण, वनों की कटाई और अतिक्रमण पर सख्ती के साथ-साथ दीर्घकालिक पर्यावरणीय नीतियों की जरूरत है।

‘देवभूमि’ की पहचान को आपदाओं का पर्याय बनने से रोकने के लिए हमें ‘प्रकृति के अनुरूप विकास’ का संकल्प लेना होगा। यह न केवल उत्तराखंड की सुरक्षा, बल्कि इसकी समृद्धि और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने का एकमात्र रास्ता है। अगर हम अब नहीं चेते, तो शायद भविष्य में बहुत देर हो जाएगी।

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