इतिहास के अलग-अलग विवरणों में सिवाणा के इस पहले जौहर और साके की तिथियों में अंतर आता है । इस जौहर और साके का विवरण “अमीर खुसरो” ने भी किया है और “कान्हड़दे प्रबंध” में भी है । “कान्हड़दे प्रबंध” के अनुसार सुल्तान एक बड़ी सेना लेकर सिवाना की ओर चल दिया। उसी अवधि में एक राजद्रोही ‘भावले’ की सहायता से किले के कुण्ड की, जो दुर्ग के निवासियों और सैनिकों के लिए पानी का एकमात्र साधन था, गौरक्त से अपवित्र करवा दिया। किले में भी खाद्य सामग्री समाप्त हो चली थी। जब सर्वनाश निकट था तो राजपूत वीरांगनाओं ने सतीव्रत द्वारा अपनी देह की आहुति दे डाली। किले के फाटक खोल दिये गये और वीर राजपूत केसरिया बाना पहनकर शत्रुओं पर टूट पड़े तथा एक-एक करके वीरगति को प्राप्त हुए। सीतलदेव भी एक वीर योद्धा की भाँति अन्त तक लड़ते हुए मारा गया। सुल्तान ने इस विजय के बाद सिवाना दुर्ग का अधिकार कमालउद्दीन को सौंपा और नाम बदलकर ‘खैराबाद’ रखा। हालाँकि सुल्तान का अधिकार केवल दो वर्ष ही रह पाया । दिल्ली सल्तनत की उठापटक के बीच राजपूतों ने फिर अपना अधिकार कर लिया था ।