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Friday, June 27, 2025

तुर्की-पाकिस्तान बिरादरी: इतिहास और वर्तमान का अटूट बंधन

नई दिल्ली, 17 मई 2025, शनिवार। तुर्की और पाकिस्तान की दोस्ती आज अपने चरम पर है, और इस प्रेम की गर्मजोशी सोशल मीडिया से लेकर कूटनीतिक मंचों तक साफ झलकती है। हाल ही में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने तुर्की भाषा में ट्वीट कर तुर्की राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन को “मेरा भाई” कहकर संबोधित किया और उनका लाख-लाख शुक्रिया अदा किया। जवाब में एर्दोगन ने भी आभार जताया और ट्वीट के अंत में लिखा, “तुर्की-पाकिस्तान दोस्ती जिंदाबाद!” यह दिली रिश्ता कोई नई बात नहीं है, बल्कि सदियों पुराने इतिहास की गहरी जड़ों से उपजा है। आइए, इतिहास के पन्नों को पलटकर समझें कि यह बंधन कैसे समय की कसौटी पर खरा उतरा और आज भी भारत के लिए एक सबक क्यों है।

मध्यकाल का गठजोड़: बारूदी साम्राज्यों की कहानी

मध्यकाल में तीन बड़े साम्राज्य विश्व मंच पर छाए थे—तुर्की (ऑटोमन), सफावी (ईरान), और मुगल। इन तीनों को “बारूदी साम्राज्य” कहा जाता था, क्योंकि इन्होंने चीनी आविष्कार बारूद को युद्धकला में बखूबी ढाला। तुर्की ने तो बारूद का इस्तेमाल इतनी कुशलता से किया कि उनकी तकनीक मुगलों तक पहुंची। जब बाबर ने 1526 में दिल्ली पर चढ़ाई की, तो उसके पास तुर्की तोपची उस्ताद अली कुली खान जैसे विशेषज्ञ थे। इन्होंने बाबर की सेना को तोपों और बारूद का प्रशिक्षण दिया, जिसने पानीपत की पहली जंग में उसकी जीत सुनिश्चित की।

लेकिन तुर्की ने मुगलों को सिर्फ बारूद ही नहीं सिखाया। एक और घातक युद्ध तकनीक थी—वॉर वैगन्स (जंग की बग्गियाँ)। ये मजबूत लकड़ी की बग्गियाँ होती थीं, जिनमें सैनिक छिपकर गोलियाँ चलाते थे। यह तकनीक न सिर्फ बंदूक रीलोड करने का समय देती थी, बल्कि सैनिकों को दुश्मन के हमलों से सुरक्षा भी प्रदान करती थी। तुर्कियों ने यह तरकीब क्रूसेड युद्धों के दौरान यूरोपियनों से सीखी थी और इसे मुगलों तक पहुंचाया। इस तकनीक और बारूद के मिश्रण ने हिंदुस्तानी रियासतों को पूरी तरह बेबस कर दिया। पानीपत से लेकर कई अन्य युद्धों में यह संयोजन अजेय साबित हुआ।

हिंदुस्तान का अकेलापन: तब और अब

हिंदुस्तानी रियासतें इस आधुनिक युद्धकला से कभी उबर नहीं पाईं। जब अंग्रेज आए, तब भी हमारी सेनाएँ पारंपरिक तरीकों पर निर्भर थीं। इतिहास के जानकार नोटिस करते हैं कि अंग्रेजों के आने पर कई रियासतों ने फ्रांसीसी, डच, और पुर्तगाली सेनानायकों को अपनी सेनाओं का नेतृत्व सौंपा। ये विदेशी सैन्य प्रशिक्षण और आधुनिक हथियारों की तकनीक लाते थे, लेकिन स्थानीय स्तर पर आधुनिक हथियारों का निर्माण न के बराबर था। भारत में हथियारों और युद्ध तकनीक के मामले में यह पिछड़ापन लंबे समय तक बना रहा।

वर्तमान: इतिहास का प्रतिबिंब

आज समय बदल चुका है। भारतीय मिसाइलें और स्वदेशी हथियार विश्व मंच पर अपनी धाक जमा रहे हैं। अब हमें विदेशी प्रशिक्षण की उतनी जरूरत नहीं। लेकिन कुछ चीजें नहीं बदलीं। तुर्की और पाकिस्तान की दोस्ती आज भी उतनी ही मजबूत है, जितनी मध्यकाल में थी। यह गठजोड़ सिर्फ कूटनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक और सैन्य स्तर पर भी गहरा है। दूसरी ओर, भारत आज भी कई बार वैश्विक मंच पर अकेला पड़ता नजर आता है। इतिहास हमें सिखाता है कि युद्ध में शत्रु कभी अकेला नहीं होता—न तब, न अब।

सबक: सतर्कता और आत्मनिर्भरता

तुर्की-पाकिस्तान की इस बिरादरी से भारत को एक महत्वपूर्ण सबक लेना होगा। हमें अपनी सैन्य और कूटनीतिक रणनीतियों को और मजबूत करना होगा। आत्मनिर्भर भारत का सपना सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि रक्षा और तकनीकी क्षेत्र में भी साकार करना होगा। इतिहास का यह सच हमें बार-बार याद दिलाता है कि वर्तमान उसी का प्रतिबिंब है। तुर्की-पाकिस्तान की दोस्ती एक ऐतिहासिक सत्य है, जो समय के साथ और मजबूत हुई है। भारत को इस गठजोड़ को नजरअंदाज करने की बजाय, इससे प्रेरणा लेकर अपनी ताकत को और बढ़ाना होगा।

तुर्की-पाकिस्तान दोस्ती जिंदाबाद का जवाब भारत की एकजुटता और आत्मनिर्भरता से ही दिया जा सकता है।

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