पटना, 11 जुलाई 2025: बिहार के कटिहार से पूर्णिया तक फैली चमचमाती चार लेन की सड़क विकास की एक चमकीली तस्वीर पेश करती है। 35 किलोमीटर का सफर महज 25 मिनट में तय हो जाता है। लेकिन इस हाईवे से मात्र ढाई किलोमीटर दूर, रजीगंज पंचायत का टेटगामा गांव आज भी समय की रेत में ठहरा हुआ है। यहां की हकीकत विकास के दावों को आईना दिखाती है, जहां अंधविश्वास, अशिक्षा और गरीबी ने एक ऐसी त्रासदी रची, जिसने मानवता को झकझोर दिया।
6 जुलाई 2025 की रात, टेटगामा में एक भीड़ ने अंधविश्वास के जहर में डूबकर एक ही परिवार के पांच लोगों को ‘डायन’ के नाम पर जिंदा जला दिया। इनमें तीन महिलाएं थीं। यह घटना न केवल एक क्रूर हत्याकांड थी, बल्कि उस सामाजिक अंधेरे की चीख थी, जो शिक्षा और जागरूकता के अभाव में पनपता है।
विकास की चौखट पर ठिठका गांव
टेटगामा पहुंचते ही लगता है, जैसे विकास की सारी योजनाएं गांव की सीमा पर आकर दम तोड़ देती हैं। ज्यादातर घर फूस और टीन के बने हैं, कईयों की छतें अधूरी। सन्नाटे में डूबे इस गांव में गरीबी और उपेक्षा की गंध हर सांस में महसूस होती है। बाबूलाल उरांव का घर, जहां यह भयावह घटना हुई, खुद लाचारी और अभाव का प्रतीक है। गांव के ज्यादातर लोग दिहाड़ी मजदूर हैं, जिनकी रोजी-रोटी भी अनिश्चित है।
यहां ‘हर घर नल का जल’ योजना केवल कागजों का नारा है। नल तो लगे हैं, पर टोंटी तक नहीं पहुंची। गांव के बगल से पक्की सड़क गुजरती है, लेकिन गांव की गलियां आज भी कच्ची हैं। स्थानीय खूबलाल उरांव का दर्द छलकता है, “यहां ब्लॉक में पैरवी और पैसा लगे, तभी काम होता है। हमारे लिए तो दो वक्त का खाना ही बड़ी बात है।”
अशिक्षा: अंधविश्वास की जड़
टेटगामा में शिक्षा की स्थिति दयनीय है। गांव के 50 से ज्यादा स्कूली उम्र के बच्चे हैं, लेकिन पास के प्राथमिक विद्यालय में सिर्फ चार बच्चे पढ़ने जाते हैं। जितेंद्र उरांव कहते हैं, “यहां पढ़ाई प्राथमिकता में नहीं है। कुछ लोग बच्चों को पढ़ाने ससुराल भेज देते हैं।” जहां शिक्षा नहीं, वहां अंधविश्वास अपनी जड़ें गहरे जमाता है। इस गांव में झाड़-फूंक और ओझा पर भरोसा चिकित्सा से कहीं ज्यादा है।
इसी अंधविश्वास की आग में पांच जिंदगियां जलकर राख हो गईं। रामदेव उरांव ने अपने भांजे की बीमारी का ठीकरा बाबूलाल की मां और पत्नी पर फोड़ा, जिन्हें ओझा ने ‘डायन’ करार दिया। नतीजा? एक परिवार तबाह, और गांव मूकदर्शक बना रहा।
स्वास्थ्य सुविधाएं पास, फिर भी ओझा की शरण
टेटगामा से सिर्फ 2.5 किलोमीटर दूर रानीपतरा में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर है। 18 किलोमीटर दूर पूर्णिया में मेडिकल कॉलेज भी। फिर भी गांववाले ओझा और तंत्र-मंत्र को प्राथमिकता देते हैं। जिला परिषद सदस्य राजीव सिंह कहते हैं, “जब तक जागरूकता नहीं आएगी, लोग डॉक्टर की जगह ओझा पर ही भरोसा करेंगे।”
अपराधी का चेहरा और सियासत की छाया
इस हत्याकांड का मुख्य आरोपी नकुल उरांव गांव का ही निवासी है। भूमि कारोबार और अनैतिक कामों से उसने संपत्ति बनाई और अब राजनीति में कदम रखने की जुगत में है। यह विडंबना ही है कि जिस गांव में लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरसते हैं, वहां एक अपराधी सियासत की सीढ़ियां चढ़ने का सपना देख रहा है।
संवेदनाओं का ढोंग और सवालों का सन्नाटा
घटना के 18 घंटे बाद प्रशासन को खबर मिली। इसके बाद अफसरों और नेताओं का तांता लग गया। प्रमंडलीय आयुक्त राजेश कुमार ने दोषियों और लापरवाह अधिकारियों पर कार्रवाई का वादा किया। सांसद पप्पू यादव ने कहा, “अंधविश्वास मिटे बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता।” जनजातीय आयोग के अध्यक्ष शैलेन्द्र गढ़वाल ने सवाल उठाया, “क्या हम सिर्फ घटना के बाद ही जागेंगे?”
क्या बदलेगा टेटगामा?
टेटगामा की यह त्रासदी एक सवाल छोड़ जाती है—क्या इस भयावह घटना के बाद भी कुछ बदलेगा? या यह कांड भी कागजों में दबकर रह जाएगा, जब तक अगला ‘डायन कांड’ हमें फिर न झकझोरे? जब तक शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरूकता को प्राथमिकता नहीं मिलेगी, टेटगामा जैसे गांव हमारे विकास के दावों की सबसे बड़ी नाकामी के गवाह बने रहेंगे।
यह कहानी सिर्फ टेटगामा की नहीं, बल्कि उन तमाम गांवों की है, जहां अंधविश्वास और गरीबी की आग में जिंदगियां जल रही हैं। सवाल यह है कि क्या हम सिर्फ आंसुओं से संवेदनाएं सींचते रहेंगे, या इन गांवों की तकदीर बदलने की हिम्मत जुटाएंगे?