डोनाल्ड ट्रंप का दूसरी बार राष्ट्रपति चुना जाना दुनिया के लिए एक मोड़ घुमा देने वाली घटना है. अमेरिका का चुनावी नतीजा निर्णायक साबित हुआ, हालांकि इसके कारण पर बहस हो सकती है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या कमला हैरिस को सत्ता-विरोधी लहर का नतीजा भुगतना पड़ा या फिर ट्रंप और उनके वादे लुभावने थे? या किसी तीसरे पक्ष ने सोशल मीडिया और धनबल के जरिये चुनावी नतीजा हैक कर लिया? हालांकि यह असंभव था, क्योंकि कमला हैरिस ने अपने प्रतिद्वंद्वी की तुलना में चुनाव अभियान में कहीं ज्यादा पैसे खर्च किये. जो स्पष्ट है, वह यह कि ट्रंप अपने मुख्य चुनावी वादों में से कुछ पूरे करेंगे और वैश्विक भू-राजनीति में बाधा उत्पन्न करेंगे. ट्रंप के राष्ट्रपति काल में विश्व और भारत पर पड़ने वाले संभावित असर ये होंगे.
पहला असर जलवायु वित्त पर पड़ेगा. चूंकि अजरबैजान के बाकू में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन चल रहा है, ऐसे में ज्यादा संभावना यही है कि अमेरिका जलवायु वित्त में हिस्सेदारी करने के अपने वादे से मुकर जाए. वर्ष 2015 में हुए कॉप 21 में अमेरिका ने ऐतिहासिक जलवायु समझौते पर दस्तखत कर विकासशील देशों के प्रति मदद करने की अपनी प्रतिबद्धता जतायी थी. लेकिन 2016 में राष्ट्रपति चुने गये ट्रंप ने पहला फैसला ही पेरिस समझौते से बाहर होने का लिया था. वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए कॉप 15 में विकसित देशों ने विकासशील देशों की मदद के लिए सालाना 100 बिलियन डॉलर जलवायु वित्त के तौर पर उपलब्ध कराने का वादा किया था.
भारत के आयातों पर शुल्क लगा सकता है अमेरिका
तीसरा मुद्दा व्यापार शुल्कों का है. ट्रंप ने रॉबर्ट लाइटहाइजर को अपना व्यापार प्रमुख बनाया है. लाइटहाइजर की छवि सख्त और संरक्षणवादी की है. हमें यह देखने को मिल सकता है कि अमेरिका सिर्फ चीन और रूस के आयातों पर ही नहीं, बल्कि भारत, यूरोपीय संघ, कोरिया और जापान के आयातों पर भी भारी-भरकम शुल्क लगाये. कनाडा, मेक्सिको और मुक्त व्यापार समझौता भागीदारों को ही संभवत: अमेरिकी उपभोक्ताओं के बीच शुल्क मुक्त प्रवेश मिले. इसका नतीजा दूसरे देशों द्वारा ‘जैसे को तैसा’ रवैया अपनाने और देशों के बीच शुल्क युद्ध शुरू होने के रूप में मिल सकता है, जैसा कि हम ट्रंप के पहले राष्ट्रपति काल में देख चुके हैं. अमेरिकी प्रशासन में चीन-विरोधी भावना प्रबल है, जिसे ट्रंप के पहले कार्यकाल, और फिर बाइडेन के राष्ट्रपति काल में देखा जा चुका है. ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भी इसके जारी रहने की संभावना है. आने वाले दिनों में यह शीतयुद्ध और तेज हो, तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि तकनीकी विश्व आज अमेरिका और चीन के दो शिविरों में बंट चुका है.
यूक्रेन को समर्थन में कमी आएगी
चौथा मुद्दा पश्चिम एशिया और यूक्रेन में चल रहे युद्धों को अमेरिकी समर्थन का है. ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को एक बार ‘सुपर सेल्समैन’ कहा था. उनका कहना था कि जेलेंस्की जब भी अमेरिका आते हैं, 100 बिलियन डॉलर की सैन्य व दूसरी मदद लेकर ही लौटते हैं. हालांकि ट्रंप ने ऐसा चुनाव अभियान के दौरान कहा था, लेकिन यह मानने का कारण है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यूक्रेन को दिये जा रहे समर्थन में कमी आयेगी. बेशक यूक्रेन और इस्राइल को दी गई सैन्य मदद से अमेरिकी रक्षा कंपनियों की किस्मत चमकी है. लेकिन ट्रंप निश्चित रूप से इस नीति पर पुनर्विचार करेंगे. दरअसल ट्रंप के दौर में अमेरिका वैश्विक पुलिस बनने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट सकता है, क्योंकि वहां यह जन भावना कर गयी है कि दुनियाभर में सैन्य और आर्थिक मदद देने का अमेरिका को कोई लाभ नहीं मिलता. अमेरिका पर 35 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है, और ऊंची ब्याज दर के कारण यह बोझ निरंतर बढ़ता ही जा रहा है.