आज़ादी की ये कहानी दालमंडी की वीरांगनाओं की क़ुर्बानी के नाम
वाराणसी। काशी अपनी कला और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में सदियों से मशहूर रहा है। काशी के इतिहास में ऐसा बहुत कुछ है जो छिपा हुआ है और उसके बारे में अधिकतर लोगों को नहीं पता है। बीतते समय के साथ इतिहास के ऐसे बहुत से पहलू मिट चुके हैं, जो हमारी संस्कृति और हमारे देश के लिए बहुत मायने रखते हैं। ऐसा ही एक पन्ना है काशी के दालमंडी की तवायफें। 21 वीं सदी में बिजनेस का हब बन चुके दालमंडी की गली में कोठे हुआ करते थे जहां से आने वाली तवायफों के घुंघरूओं की झनकार ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला कर रख दिया था। उस दौर में हमारे देश में कला और संस्कृति के लिए तवायफ़ों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्हें इज़्ज़त की नजरों से देखा जाता था। काशी के राज दरबारों, रईसों की कोठियों के अलावा मंदिरों और मठों में भी इनकी संगीत की महफिल जमा करती थी। इसमें आजादी के तराने गुंजा करते थे। इस दौरान वहां अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाने के लिए क्रांतिकारी इकट्ठा होते थे। इनकी महफिल अक्सर शाम छह बजे के बाद ही सजती थी। इसमें मिलने वाले पैसों को वह चुपके से क्रांतिकारियों को दिया करती थीं। कई बार अंग्रेज अफसरों ने उनके यहां छापा भी मारा था। आजादी की लड़ाई में इन तवायफों का योगदान अविस्मरणीय है।
इन तवायफों ने आजादी की लड़ाई में निभाई थी अहम भूमिका
यूं तो देश की आज़ादी के लिए अनेकों क्रांतिकारियों ने अपनी जान तक न्योछावर कर दी। उनकी क़ुर्बानियों का ही नतीजा है कि आज हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं। इतिहास के पन्नों में ऐसे क्रांतिकारियों का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। लेकिन देश की स्वाधीनता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दालमंडी की गुमनाम तवायफ राजेश्वरी बाई, जद्दन बाई से लेकर रसूलन बाई तक का जिक्र न करें तो आजादी की लड़ाई का इतिहास अधूरा रह जाएगा। आजादी की लड़ाई में महफिल सजाने वाली इन तवायफों ने न सिर्फ घुंघरू उतार दिए बल्कि गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए क्रांतिकारियों के साथ रणनीतियां भी बनाई। इन तवायफों ने आजादी के लिए क्या कुछ नहीं किया, लेकिन आज भी वो कहीं गुम-सी हूँ हैं। बाज़ार में बैठ वीरता की नयी गाथा लिखने वाली शेरनियों का ज़िक्र कोई नहीं करता, क्योंकि ये तवायफ़ जो ठहरीं।
रसूलन बाई के दिल में भड़की ‘आजादी की ज्वाला’
‘फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट…’ जैसे गीत से मशहूर रसूलन बाई ने खतरा मोल लेकर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हिंदुस्तानी देशभक्तों को सहयोग दिया। उनके जैसी कई तवायफ वीरांगनाएं ऐसी हुई हैं जिन्होंने अपने गायन, आर्थिक सहयोग और मुश्किल कोशिशों से आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। ठुमरी, टप्पा और चैती गायिका रसूलन बाई की महफिल में रईस कद्रदानों की भारी भीड़ उमड़ा करती थी। साल 1920-22 के आस-पास रसूलन बाई की संगीत की महफिल में आजादी की लड़ाई की रणनीति भी तैयार की जाती थी। ब्रिटिश हुकूमत ने रसूलन बाई को काफी प्रताड़ित भी किया। इतिहास के पन्नों में जिक्र है कि रसूलन बाई ने महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर गहने पहनना छोड़ दिया था। उन्होंने गहने तभी पहने, जब देश आजाद हो गया। अपने प्रण के मुताबिक रसूलन बाई ने देश के आजाद होने के बाद ही शादी भी की। बाद में रसूलन बाई को संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
देशभक्ति गीतों से सजता था महफ़िल
ठुमरी गायिका राजेश्वरी बाई महफिलों में देशभक्ति के गीत जरूर गाती थीं। हर महफिल में अंतिम बंदिश भारत कभी न बन सकेला गुलाम… गाना नहीं भूलती थीं। ख्याल व ठुमरी गायिका जद्दन बाई समकालीन गायिकाओं में सबसे ज्यादा सुंदर थीं। अपने जमाने की मशहूर एक्ट्रेस नर्गिस इन्हीं की बेटी थीं। जद्दन बाई के दालमंडी कोठे पर भी आजादी के दीवानों का आना-जाना रहता था। अंग्रेजों ने कई बार उनके कोठे पर छापा मारा। प्रताडऩा से तंग आकर जद्दन बाई को दालमंडी की गली तक छोडऩी पड़ी थी। इन सबके बावजूद महफिल से मिलने वाले पैसों को तवायफें चुपके से क्रांतिकारियों को दे दिया करती थीं।
गंगा में बहा दिए तानपूरे-तबले
दालमंडी की ये तवायफें ऐसी थीं जो देश की आजादी के लिए बहादुरी से लड़ीं, कभी पर्दे में रहकर तो कभी बिना किसी पर्दे के। यहां तक कि आजादी आंदोलन में सहभागिता करने एवं आर्थिक सहयोग देने हेतु जब तवायफों ने गांधी जी से आग्रह किया तो उन्होंने तवायफों के नैतिक रूप से पतित होने की बात कहकर उनके इस आग्रह को ठुकरा दिया। जब तवायफों ने यह बात सुनी तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा और बहुत सारी तवायफों ने नाचना-गाना बंद कर दिया। तमाम तवायफों ने अपने तानपूरे, तबले, सारंगी आदि बनारस में गंगा में बहा दिए और अपने घर में चरखा कातना शुरू कर दिए। यह निर्णय बहुत बड़ा था क्योंकि वे अपना आर्थिक आधार छोड़ रही थीं।