नई दिल्ली, 25 जून 2025: 25 जून, 1975 की वह काली रात, जब भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों पर तानाशाही का साया मंडराया। इंदिरा गांधी की सरकार ने देश पर आपातकाल थोप दिया, नागरिक अधिकारों का गला घोंट दिया गया, मीडिया पर सेंसरशिप लगी, और न्यायपालिका को बंधक बना लिया गया। इस अंधेरे दौर में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के स्वयंसेवकों ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए जो ऐतिहासिक संघर्ष किया, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
जयप्रकाश नारायण का आह्वान और इंदिरा का अड़ियल रुख
12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के रायबरेली से निर्वाचन को रद्द कर दिया। इस फैसले ने देश में सियासी भूचाल ला दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए चेतावनी दी, “सभी विरोधी पक्षों को देशहित में एकजुट होना होगा, वरना तानाशाही स्थापित हो जाएगी और जनता दुखी होगी।” दूसरी ओर, इंदिरा गांधी ने 20 जून को आयोजित कांग्रेस की रैली में ऐलान किया कि वह प्रधानमंत्री पद नहीं छोड़ेंगी। कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ ने नारा दिया, “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय।”
लेकिन उसी रात, आपातकाल की घोषणा ने देश को हिलाकर रख दिया। विपक्षी नेताओं मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, और लालकृष्ण आडवाणी को रातोंरात जेल में डाल दिया गया। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस को 30 जून को नागपुर स्टेशन से गिरफ्तार कर यरवदा जेल भेजा गया, जहां उनके साथ 500 अन्य स्वयंसेवक भी बंदी बनाए गए।
संघ का अडिग संकल्प और भूमिगत आंदोलन
आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन स्वयंसेवकों ने हार नहीं मानी। बाला साहब देवरस ने गिरफ्तारी से पहले स्वयंसेवकों से आह्वान किया, “इस असाधारण परिस्थिति में संतुलन बनाए रखें।” संघ की अनूठी संचार व्यवस्था, जो प्रेस या मंच पर निर्भर नहीं थी, ने इस दौर में चमत्कार कर दिखाया। गांव-गांव तक संदेश पहुंचाने में संघ की शाखाओं का जाल अहम साबित हुआ। रज्जू भैया, डॉ. आबाजी थत्ते, बाला साहब भिड़े, और सुंदर सिंह भण्डारी जैसे वरिष्ठ प्रचारकों ने भूमिगत रहकर जनता का मनोबल बनाए रखा।
संघ के स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह का रास्ता अपनाया। आंकड़ों के अनुसार, आपातकाल विरोधी आंदोलन में 1,30,000 सत्याग्रहियों में से 1 लाख से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। मीसा (MISA) के तहत 30,000 बंदियों में 25,000 से ज्यादा स्वयंसेवक शामिल थे। जेलों में भी संघ की शाखाएं नियमित लगती थीं, जहां शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रमों के जरिए कार्यकर्ताओं का उत्साह बना रहा। इस दौरान 100 स्वयंसेवकों ने बलिदान दिया, जिनमें से अधिकांश जेलों में और कुछ बाहर शहीद हुए।
शाह आयोग का खुलासा: आपातकाल का काला सच
1977 में मोरारजी देसाई की सरकार ने जस्टिस जे.सी. शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग गठित किया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में साफ किया कि आपातकाल की घोषणा के समय न तो आर्थिक संकट था और न ही कानून-व्यवस्था की कोई समस्या। फिर भी, सरकार ने नागरिकों के अधिकार छीन लिए। जबरन नसबंदी जैसे अत्याचारों ने जनता को त्रस्त कर दिया। वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र भदौरिया अपनी किताब तानाशाही में लिखते हैं कि इंदिरा गांधी के 21 माह के शासन में 60 लाख से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी की गई, जो हिटलर के कालखंड से भी पांच गुना अधिक थी।
संघ की वीरता ने जीता सबका दिल
संघ के साहस और समर्पण को देखकर मार्क्सवादी नेता ए.के. गोपालन भी भावुक हो उठे। उन्होंने कहा, “कोई उच्च आदर्श ही इन स्वयंसेवकों को इतना साहस और त्याग की प्रेरणा दे रहा है।” समाजवादी नेता अच्युत पटवर्धन ने भी लिखा कि संघ के कार्यकर्ता किसी भी समूह के साथ उत्साह और निष्ठा से सहयोग करने को तैयार थे।
लोकतंत्र की जीत, तानाशाही की हार
आपातकाल के विरुद्ध संघ का यह संघर्ष भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का प्रतीक बन गया। जब कम्युनिस्ट पार्टियां आपातकाल का समर्थन कर रही थीं, तब संघ ने जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर तानाशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह संघर्ष साबित करता है कि भारत का जनमानस कभी भी लोकतंत्र की हत्या बर्दाश्त नहीं कर सकता।
आज, 50 साल बाद भी, आपातकाल के उस दौर की स्मृति हमें सिखाती है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए एकजुटता और साहस कितना जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह बलिदान और समर्पण भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।