नई दिल्ली, 30 जनवरी 2025, गुरुवार। 30 जनवरी वर्ष 1948… दिन शुक्रवार स्थान… बिरला भवन, नई दिल्ली शाम का समय था जब नाथूराम गोडसे आता है और महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर देता है… लेकिन क्या जानते है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को जिस पिस्तौल से गोली मारी वह किसकी थी और नाथूराम गोडसे तक कैसे पहुंची… आपकों बतादें कि जिस पिस्तौल से गोली चलाई गई थी वह सीरियल नंबर 606824 वाली 7 चैंबर की सेमी-ऑटोमेटिक एम1934 बेरेटा पिस्टल थी… उन दिनों बेरेटा पिस्टल भारत में बहुत दुर्लभ थी और मुश्किल से मिला करती थी…. हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली समेत कई देशों के सैनिक इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे… बेरेटा, अपने अचूक निशाने के लिए मशहूर थी और कभी धोखा नहीं देती थी…
बेरेटा बनाने वाली कंपनी यूं तो साल 1526 से वेनिस में बंदूक के बैरल का निर्माण करती थी, लेकिन जब प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई तो कंपनी का बिजनेस अचानक फलने-फूलने लगा… कंपनी ने 1915 में इटली के सैनिकों को हथियार सप्लाई करना शुरू किया… इसी दौरान बंदूक निर्माण की शुरुआत हुई। अब बात करते हैं उस बंदूक की जिससे महात्मा गांधी की हत्या की गई थी… यह बंदूक वास्तव में किसकी थी, यह आज तक पता नहीं लग पाया लेकिन इसके सीरियल नंबर से कुछ कहानी जरूर पता लगती है… यह पिस्तौल साल 1934 में मैन्युफैक्चर की गई थी वहीं कुछ का मानना था कि साल 1934 – 1935 में इटली आर्मी के किसी अफसर को मिली थी। बाद में जिस अफसर को यह बंदूक मिली वह इसे अपने साथ अफ्रीका ले गया… उस वक्त इटली ने एबेसीनिया पर हमला कर दिया था… बाद में जब इटली की सेना ब्रिटिश फौज से मुंह की खानी पड़ी तो, 4th ग्वालियर इंफ्रेंटी के ब्रिटिश अफसर ने वॉर ट्रॉफी के रूप में वह बेरेटा पिस्टल हासिल कर ली…
अब सवाल यह है कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे तक यह पिस्तौल कैसे पहुंची? इतिहासकार और लेखक डॉमिनिक लापिर और लेरी कॉलिन्स अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखते हैं कि नाथूराम गोडसे ने पहले दिल्ली के शरणार्थी शिविरों से पिस्तौल हासिल करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहा… आखिरकार दिल्ली से 194 मील दूर ग्वालियर में उसकी कोशिश सफल हुई… गांधी की हत्या से तीन दिन पहले 27 जनवरी 1948 को ग्वालियर में दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे ने उसे पिस्टल दी, जो हिंदू महासभा से जुड़े थे और हिंदू राष्ट्र सेना के नाम से अपना संगठन चला रहे थे….
अप्पू एस्थोस सुरेश और प्रियंका कोटामराजू अपनी किताब ‘द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फकीर’ में लिखती हैं कि नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे एक अच्छे हथियार की तलाश में ग्वालियर पहुंचे… उस वक्त गोडसे के पास एक देशी कट्टा था, लेकिन उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता था… जब उन्होंने परचुरे से मदद मांगी तो परचुरे ने हथियार सप्लायर गंगाधर दंडवते से संपर्क किया, लेकिन इतने शॉर्ट नोटिस पर अच्छा हथियार मिल पाना मुश्किल था… पाकिस्तान बंटवारे में कुर्सी-कमोड तक ले गया, पर इस चीज को हाथ तक नहीं लगाया
थक-हारकर दंडवते एचआरएस अफसर जगदीश गोयल के पास पहुंचा और 500 रुपये के बदले उनकी खुद की पिस्तौल मांगी… 24 साल के गोयल अपना हथियार देने को तैयार हो गए… उन्हें 300 रुपये एडवांस दिये गए और 200 बाद में देने का वादा हुआ…. 30 जनवरी को गांधी की हत्या के बाद हुई जांच में परचुरे को 3 फरवरी, 1948 को गिरफ्तार किया गया। 18 फरवरी को उसने हत्या में अपनी भूमिका भी कबूल की, लेकिन बाद में उसने कबूलनामा यह कहकर वापस ले लिया कि उसे इसके लिए मजबूर किया गया था। जांच में बंदूक के रहस्य का ज्यादा पता नहीं लगा पाई। हालांकि वो परचुरे और गोयल तक पहुंच गए, लेकिन गोयल के आगे इसकी कहानी का कभी पता नहीं लग पाया।