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Wednesday, March 12, 2025

रोशनी की झुरमुट से पूरे कार्तिक मास आलोकित होगा आकाश

वाराणसी, 16 अक्टूबर 2024, बुधवार। गंगा घाटों पर लगे लंबे लंबे बांस, उस पर लटकी बांस की जालीदार टोकरी, उसमें टिमटिमाता हुआ दीपक। यह दीप कार्तिक मास में घाटों पर अपनी अलग ही छटां बिखेरता है। कार्तिक मास के शुरु होते ही काशी के गंगा घाटों पर आकाशदीप जलाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। देखा जाय तो गंगा घाटों पर कार्तिक मास में लोग आकाशदीप जला कर अपने पूर्वजों को याद करते हैं। इस बार भी घाटों पर आकाशदीप जलाने की तैयारी शुरु हो चुकी है। इस बार घाटों से बाढ़ की मिट्टी बहुत ज्यादा हटायी नहीं जा सकी है। इसके चलते घाटों पर बांस लगाने में लोगों को भारी दिक्कतें आ रही हैं। आकाशदीप जलाने की शुरुआत सर्वप्रथम पंचगंगा घाट से की गई थी। पहले पंचगंगाघाट के अलावा बालाजी घाट, रामघाट पर आकाशदीप जलाया जाता था।
बाद में यह आकाशदीप बढ़ कर आगे की बढ़ा। इसमें दशाश्वमेधघाट, प्रयागघाट, अहिल्याबाई घाट, डा. राजेन्द्रप्रसाद घाट, केदारघाट, गायघाट, तुलसीघाट, अस्सी घाट पर आकाशदीप दिखायी पड़ता है। मास पर्यन्त निभायी जाने वाली इस रस्म को लोग अपने मकान की छतों पर लाल बल्ब जला कर हर शाम अपने पूर्वजों को याद कर उन्हें नमन करते हैं। इसका समापन त्रिपुरोत्सव की महत्ता प्राप्त कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि देवदीपावली के दिन होता है। धार्मिक पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक हिंदू धर्म में कार्तिक मास को अत्यन्त पावन मास कहा गया है। धर्म उत्सव की श्रृंखला इसी मास से प्रारंभ होती है। इस माह में यम देव को प्रसन्न करने के लिए आकाशदीप प्रज्जवलित किये जाते हैं। इसमें एक माह तक आंवले वृक्ष का सिंचन व पूजन करना फलदायी रहता है।
ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित करने की कामना
पं. रामेश्वरनाथ ओझा बताते हैं कि धर्मशास्त्रियों ने आकाशदीप की आधात्मिक व्याख्या भी की है। उनकी दृष्टि में मूल दर्शन यह कि जीव के मन में ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित होने पर ही भौतिक सुखों की प्राप्ति संग परम ब्रह्म का सानिध्य भी प्राप्त होगा। पांच हाथ से 20 हाथ तक की लंबाई वाले बांसों की फुनगी (ऊपरी हिस्सा) पर लगी घिर्रियों के सहारे करंड की पिटारी में प्रज्जवलित किए जाने वाले इन आकाशदीपों की दृष्टि से आकाश सर्वव्यापी ब्रह्म का प्रतीक है। पिटारी की खपच्चियां जीवात्मा का बोध कराती हैं।
सामाजिक सरोकार भी हैं इसके साथ
अध्यात्म के कुछ अध्येताओं का मत यह भी है कि कभी यह पर्व पुरातनकाल के सामाजिक संदर्भों से भी जुड़ा रहा होगा। चार महीने के वर्षाकाल में मार्गों की दुर्गम्यता के कारण अंतरराज्यीय व्यापार ठप हो जाना स्वाभाविक है। ऋतु परिवर्तन के बाद कार्तिक मास की अमावस्या को दीपमालिकाओं के उजास के बीच ऐश्वर्य लक्ष्मी का पूजन कर वणिक वर्ग व्यापार यात्राओं की तैयारी में जुट जाता था। ऐसे में इसके पीछे यह कामना भी रही कि प्रस्थान के इस काल में उनकी राह आलोकित रहे।

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