नई दिल्ली, 22 अक्टूबर 2024, मंगलवार। ‘कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है कि रख दे जरा सी कोई खाक-ए-वतन कफन में, वतन रहे हमेशा साद, कायम और आजाद, हमारा क्या हम रहे, रहे ना रहे’। यह शेर, महान क्रांतिकारी शहीद अशफाक उल्ला खान ने फांसी से पहले अपने अंतिम वक्त में लिखा था। काकोरी कांड के महानायक अमर शहीद अशफाक उल्ला खां युवा पीढ़ी के लिए देशभक्ति का पर्याय हैं। आज के दिन ही उनका जन्म हुआ था। पं. रामप्रसाद बिस्मिल और ठा. रोशन सिंह के साथ 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी रेल एक्शन की घटना का दोषी के रूप में फांसी का फंदा चूमकर उन्होंने देश में स्वतंत्रता के आंदोलन को नई धार दी थी।
स्वाधीनता संग्राम में क्राँतिकारियों की एक टोली ऐसी थी जिसकी प्राथमिकता राष्ट्र और संस्कृति सर्वोपरि थी। ऐसे ही क्राँतिकारी थे अशफाक उल्ला। क्राँतिकारी अशफाक उल्ला का जन्म ऐसे दौर में हुआ जब कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को आक्रामक बनाकर एक अलग देश का अभियान चला रहे थे। ऐसे वातावरण में युवाओं एक समूह ऐसा था जो मानता था पूजा उपासना और आराधना पद्धति अलग है और राष्ट्र अलग। भारत राष्ट्र की स्वाधीनता पहला लक्ष्य होने चाहिए। ऐसे क्राँतिकारी अशफाक उल्ला खान का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ था। उनके पिता शफीक उल्ला खान पुलिस में नौकरी करते थे। माता मजरुंनिशा एक घरेलू महिला थीं। वे छः भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनसे बड़े दो भाई और तीन बहनें थीं। अशफाक पढने में बहुत कुशाग्र बुद्धि थे। उन्हें शायरी का भी शौक था। पिता की नौकरी अंग्रेजों की पुलिस में अवश्य थी लेकिन परिवार पूरी तरह अंग्रेजों के विरुद्ध था। पिता के अनेक कांग्रेस नेताओं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से संपर्क था। तीनों भाई एक प्रकार से कांग्रेस के सहयोगी कार्यकर्त्ता के रूप में जाने जाते थे। इसी के चलते कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन अशफाक उल्ला का परिचय उन युवाओं से हुआ जिन्होंने आगे चल कर क्राँतिकारी दल बनाया।
समय के साथ अशफाक उल्ला ने क्राँतिकारी चंद्र शेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्र नाथ, केशव चक्रवर्ती आदि के साथ जुड़ गये। इन सभी युवाओं को देश की स्वतंत्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग पसंद आया। क्रांति के लिये हथियारों की आवश्यकता है और हथियारों के लिये अंग्रेजों का खजाना ही लूटा जाना चाहिए। यह सुझाव सबसे पहले क्राँतिकारी अशफ़ाक उल्ला खान ने ही दिया था। उनका कहना था कि यह धन हिन्दुस्तान का है और हिन्दुस्तानियों का है। इसलिये उनकी स्वतंत्रता में ही लगना चाहिए। इसलिये क्राँतिकारियों ने काॅकोरी में रेल से जा रहे खजाने को लूटने की योजना बनाई। इस टीम में अशफाक उल्ला भी सम्मिलित हुये। योजना के अनुसार 8 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में क्रांतिकारियों द्वारा एक बैठक आयोजित की गई थी। जिसमें उन लोगों ने ट्रेन से ले जाए जा रहे हथियार को खरीदने के बजाय उस सरकारी खजाने को लूटने का फैसला किया था। इस प्रकार 9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, शचीन्द्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्दी लाल, मनमथनाथ गुप्ता समेत कई उग्रवादियों के समूह ने ककोरी गाँव में सरकारी धन ले जाने वाली ट्रेन में लूटपाट की थी। इस घटना को इतिहास में प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन डकैती के रूप में जाना जाता है।
घटना के लगभग डेढ माह बाद 26 सितंबर 1925 की सुबह राम प्रसाद बिस्मिल एवं अन्य लोग पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये थे पर अशफाक उल्ला अज्ञातवास में चले गये थे। अशफाक पहले बिहार फिर बनारस चले गए। उन्होंने वहाँ एक इंजीनियरिंग कंपनी में नौकरी कर ली थी। वे लगभग 10 महीने वहाँ रहे। इस बीच लगा कि मामला ठंडा हो गया। उन्होने विदेश जाकर पढ़ने का विचार किया उनकी इच्छा इंजीनियरिंग का अध्ययन की थी। जिससे स्वतंत्रता संग्राम में सहायता मिल सके। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह दिल्ली आये। जहाँ अशफाक उल्ला खां ने अपने पारीवारिक पठान मित्र के यहाँ ठहरे। उसने स्वागत किया और सहयोग करने का नाटक भी किया। किन्तु उसके मन में लालच था। अशफाक पर ईनाम घोषित था। उसने पुलिस को खबर कर दी। पुलिस अशफाक उल्ला खाँ को गिरफ्तार करके ले गई और फैजाबाद जेल में बन्द कर दिया गया था। काॅकोरी कांड के सभी आरोपियों को अलग-अलग जेल में बंद किया गया था। इस नीति के अंतर्गत अशफाक को फैजाबाद जेल भेजा गया।
अशफाक के बड़े भाई रियासतुल्लाह मशहूर वकील थे। अपने भाई का मुकदमा उन्हीं ने लड़ा। जिन्होंने अपने भाई का मुकदमा लड़ा था। उन्होंने सारे सुबूतों को संदिग्ध बताया। प्रमाण भी दिये। किन्तु सरकार काकोरी कांड के सभी आरोपियों को फाँसी देने की योजना बना चुकी थी। यह मामला राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन को मौत की सजा देने के साथ ही समाप्त हुआ। जबकि अन्य लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 19 दिसंबर 1927 को एक ही दिन एक ही समय लेकिन अलग-अलग जेलों में इन क्रान्तिकारियो का बलिदान हुआ। अशफाक को फैजाबाद और राम प्रसाद विस्मिल को गोरखपुर जेल में फाँसी दी गई। मरते दम तक दोनों ने अपनी दोस्ती की एक बेहतरीन मिसाल कायम की और एक साथ इस दुनिया को अलविदा कह दिया।