✍️ विकास यादव
वाराणसी, 7 अप्रैल 2025, सोमवार। वाराणसी, जहां गंगा की पवित्रता और काशी की संस्कृति की बातें होती हैं, वहां तालाबों और सरकारी जमीनों पर कब्जे का एक गहरा काला खेल लंबे समय से चल रहा है। नगर निगम ने हाल ही में शहर के 134 तालाबों की स्थिति का सर्वे कराया, और जो रिपोर्ट सामने आई, वह चौंका देने वाली है। इनमें से 72 तालाब अब अपने मूल स्वरूप में नहीं हैं—कहीं पुलिस चौकी बन गई, कहीं स्कूल खड़ा हो गया, तो कहीं सरकारी दफ्तरों ने डेरा जमा लिया। यह सिर्फ निजी लालच की कहानी नहीं, बल्कि सरकारी महकमों की मिलीभगत का भी नंगा सच है।
तालाब गए, कब्जे आए
नगर निगम की रिपोर्ट बताती है कि कई तालाबों को पाटकर लोग अपने नाम चढ़वा चुके हैं। अभिलेखों में दर्ज ये जलाशय अब इतिहास का हिस्सा बन गए हैं। मिसाल के तौर पर, लल्लापुरा मौजा में 0.6 हेक्टेयर का माता कुंड आज पुलिस चौकी में तब्दील हो चुका है। रमरेपुर पोखरी (0.4 हेक्टेयर) को पहाड़िया मंडी निगल गई। सदर बाजार तालाब की 1.2250 हेक्टेयर जमीन पर रक्षा विभाग ने मल्टीपरपज ग्राउंड बना डाला। कादीपुर और नदेसर तालाबों के हिस्सों पर पानी की टंकियां खड़ी हो गईं, तो जैतपुरा के हरतीर्थ तालाब पर दूरसंचार विभाग का दफ्तर बन गया—अब वहां तालाब का नामोनिशान तक नहीं है।
विकास के नाम पर विनाश
हैरानी की बात यह है कि वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए), जो अवैध निर्माण पर कार्रवाई का दम भरता है, खुद इस खेल में शामिल है। कज्जाकपुरा मौजा में ओमकालेश्वर तालाब की 0.2670 हेक्टेयर जमीन पर वीडीए ने एकता नगर कॉलोनी बसा दी। लहरतारा पोखरी पर सनबीम स्कूल की इमारत खड़ी है, तो शिवदासपुर तालाब की जमीन पर मां दुर्गा इंटर कॉलेज चमक रहा है। इतना ही नहीं, विधायक निधि तक इस खेल में इस्तेमाल हुई—रानीपुर पोखरी (0.0690 हेक्टेयर) पर बारातघर और तुलसीपुर पोखरी (0.410 हेक्टेयर) पर सामुदायिक केंद्र बना दिया गया।
गायब हो गए तालाब
134 में से कई तालाब अब पूरी तरह गायब हो चुके हैं। कहीं आबादी बस गई, कहीं सड़कें बन गईं। सरायनंदन पोखरी, सरायसुरजन पोखरी, सगरा तालाब, नेवादा पोखरी, बजरडीहा पोखरी, बिर्दोपुर पोखरी, जैतपुरा तालाब, इंग्लिशिया लाइन तालाब, अलईपुरा पोखरी, धनेसरा तालाब, सिकरौल तालाब, बसही तालाब, कानफोड़वा तालाब, खजूरी तालाब, लक्ष्मणपुर, परमानंदपुर पोखरी, चकबिही पोखरी, पहाड़िया पोखरी, बरईपुर पोखरी, गंज पोखरी—ये नाम अब सिर्फ कागजों में बचे हैं। इनकी जगह मकान, सड़कें और बाजारों ने ले ली है।
सरकारी लापरवाही या साजिश?
यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इतने बड़े पैमाने पर तालाबों का विनाश कैसे हो गया? क्या यह सिर्फ निजी लोगों का लालच है, या सरकारी तंत्र की शह के बिना ऐसा मुमकिन भी था? पुलिस चौकी, स्कूल, सरकारी दफ्तर और कॉलोनियां—ये सब बताते हैं कि कब्जे का यह खेल ऊपरी स्तर तक फैला हुआ है। नगर निगम की रिपोर्ट ने तो सच सामने ला दिया, लेकिन अब सवाल यह है कि क्या इन तालाबों को वापस उनका हक मिलेगा? या फिर यह रिपोर्ट भी फाइलों में दबकर रह जाएगी?
एक शहर का खोता इतिहास
तालाब सिर्फ पानी के गड्ढे नहीं होते, वे शहर की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय धरोहर होते हैं। वाराणसी में इनका गायब होना न सिर्फ पर्यावरण संतुलन के लिए खतरा है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक खोते इतिहास की कहानी भी। क्या इस लूट को रोकने की कोई कोशिश होगी? जवाब का इंतजार है, लेकिन फिलहाल तो काशी के तालाब कागजों में सिमटकर रह गए हैं, और जमीन पर कब्जे की कहानी अपनी पूरी बेशर्मी के साथ जारी है।