नई दिल्ली, 28 मार्च 2025, शुक्रवार। देश की जानी-मानी वरिष्ठ पत्रकार अनिता चौधरी ने हाल ही में पूर्व जस्टिस ढींगरा के साथ एक ऐसी बातचीत की, जिसने देश की न्याय व्यवस्था की जड़ों को हिला कर रख दिया। यह चर्चा तब शुरू हुई जब अनिता ने जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से बरामद नोटों की बोरियों का जिक्र छेड़ा। यह मामला कोई छोटा-मोटा नहीं था—सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता और जस्टिस वर्मा का इलाहाबाद हाईकोर्ट में तबादला, सब कुछ सवालों के घेरे में था। इलाहाबाद बार काउंसिल ने इसका तीखा विरोध किया, और देश भर के 22 बार काउंसिल सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खड़े हो गए। अनिता ने इसे न्याय व्यवस्था पर एक गहरा आघात बताया, जनता के विश्वास के साथ विश्वासघात।
इस सवाल का जवाब देते हुए पूर्व जस्टिस ढींगरा ने बेबाकी से कहा, “साफ कहूं तो आज जनता का न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है। कागजों में भले लिखा हो कि लोग न्याय व्यवस्था पर विश्वास करते हैं, मिसाल के तौर पर केसों की बढ़ती संख्या को गिनाया जाता है, लेकिन हकीकत इससे उलट है।” उन्होंने आगे कहा कि जनता के पास विकल्प ही क्या है? “अगर लोग कोर्ट में केस न करें, तो या तो खुद लड़ें या चुप रहें। अपराध तो कोई करेगा नहीं, इसलिए मजबूरी में कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।”
भ्रष्टाचार की जड़ें: नई नहीं, पुरानी हैं
पूर्व जस्टिस ढींगरा ने जोर देकर कहा कि न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। “यह बहुत पुराना है, लेकिन इसे खत्म करने की कोई कोशिश नहीं हुई।” उन्होंने संविधान सभा के दिनों की ओर इशारा किया, जब आजादी के बाद देश को नई शुरुआत का मौका मिला था। “उस वक्त संविधान सभा में कई लोगों ने कहा कि हमारी न्याय व्यवस्था गरीबों के लिए नहीं है, यह महंगी और पहुंच से बाहर है। लेकिन क्या हुआ? एक ऐसी व्यवस्था बनाने की बात तो दूर, इस पर चर्चा तक नहीं हुई।” ढींगरा ने तंज कसते हुए कहा कि संविधान सभा में ज्यादातर वकील थे—अंबेडकर से लेकर नेहरू तक—और ये सभी हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट या प्रिवी काउंसिल में प्रैक्टिस करने वाले लोग थे। “इनका आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं था। गरीबों के लिए कोई नई व्यवस्था बनाने की जरूरत ही नहीं समझी गई।”
अंग्रेजों की देन, हमारा बोझ
ढींगरा ने एक कड़वा सच उजागर किया—“हमने अपनी कोई न्याय व्यवस्था बनाई ही नहीं। अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था को जस का तस ढोया जा रहा है।” उन्होंने संविधान पर भी सवाल उठाया। “गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 का 75 फीसदी हिस्सा हमने उधार लिया। अंबेडकर ने खुद कहा था कि हमने संविधान बनाया नहीं, जो था उसे मोड़-तोड़ कर अपना लिया।” अनिता ने तीखा सवाल दागा—“जब उधार के संविधान से देश चल रहा है, तो क्या इसमें यह प्रावधान नहीं कि जस्टिस के घर नोटों की बोरियां मिलें और सुप्रीम कोर्ट चुप रहे?” ढींगरा ने जवाब में बार काउंसिल को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। “बार काउंसिल की मिलीभगत के बिना यह संभव नहीं। जज वकीलों के जरिए ही रिश्वत लेते हैं, क्योंकि आम आदमी से सीधे पैसे लेना जोखिम भरा है। वकील और जज का रिश्ता ऐसा है कि मामला दब जाता है।”
हर ईंट पैसा मांगती है
ढींगरा ने एक पुरानी कहावत को सच साबित करते हुए कहा, “न्यायालय की एक-एक ईंट पैसा मांगती है। निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं।” उन्होंने दावा किया कि इसे खत्म करना आसान नहीं, क्योंकि संसद भी इसमें शामिल रही है। “संसद ने कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम नहीं उठाया। उल्टे, ऐसे जजों को तरजीह दी गई जो उनके लिए काम करें।” अनिता ने जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले को फिर उठाया, जिस पर ढींगरा ने कहा, “पहले नोटों की बोरियां नेताओं के घर मिलती थीं, अब जजों के घर। पुलिस को FIR दर्ज करनी चाहिए थी, लेकिन दबाव में कुछ नहीं हुआ।”
न्याय का स्तर: अनपढ़ जज और अजीब फैसले
बातचीत में एक और चौंकाने वाला खुलासा हुआ। अनिता ने इलाहाबाद कोर्ट के उस फैसले का जिक्र किया, जिसमें कहा गया कि “पीड़िता के स्तनों को छूना या कपड़े उतारने की कोशिश दुष्कर्म नहीं, सिर्फ यौन उत्पीड़न है।” ढींगरा ने इसे सुनते ही कहा, “हमारे यहां अनपढ़ जजों की भर्ती हो गई है। इन्हें कानून की ABC तक नहीं पता। यह ‘अटेंप्ट टू रेप’ का मामला था, लेकिन या तो जज को जानकारी नहीं, या वह पूरी तरह बेईमान है।”
बदलाव की राह मुश्किल
अनिता ने सवाल उठाया कि क्या जजों की नियुक्ति में बदलाव की जरूरत है? ढींगरा ने सहमति जताई, लेकिन कहा, “इंडियन ज्यूडिशियल सर्विस जैसी व्यवस्था का प्रावधान है, पर सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, वकील और राज्य सरकारें इसका विरोध करते हैं। सब अपने पसंद के लोग चाहते हैं।” उन्होंने अफसोस जताया कि आज हर जज हर तरह के केस सुनता है, जबकि विशेषज्ञता की जरूरत है। “दिल का डॉक्टर आंख का इलाज नहीं करता, लेकिन हमारे जज सब कुछ संभालते हैं। नतीजा—न्याय का स्तर गिरता जा रहा है।”
अंत में एक सवाल
यह बातचीत देश की न्याय व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल छोड़ गई—जब जड़ें इतनी सड़ी हुई हों, तो क्या सुधार संभव है? अनिता और ढींगरा की यह चर्चा न सिर्फ सोचने पर मजबूर करती है, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था की मांग करती है जो सचमुच जनता के लिए हो, न कि उधार की विरासत का बोझ।