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Friday, August 1, 2025

ठाकरे बंधुओं का मिलन: महाराष्ट्र की सियासत में नया मोड़, कांग्रेस की उलझन बढ़ी

‘ठाकरे मिलाप’ ने कांग्रेस को डरा दिया?

मुंबई, 8 जुलाई 2025: महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर हलचल मच गई है। बीस साल बाद ठाकरे बंधु—उद्धव और राज—मराठी-हिंदी भाषा विवाद के मुद्दे पर एक मंच पर आए हैं। इस अप्रत्याशित गठजोड़ ने सियासी गलियारों में खलबली मचा दी है। उद्धव समर्थक खुशी से झूम रहे हैं, तो राज ठाकरे के समर्थक बीएमसी चुनाव में जीत की उम्मीद में उत्साहित हैं। लेकिन इस मिलन से सबसे ज्यादा असमंजस में है महाविकास अघाड़ी की सहयोगी कांग्रेस। बीजेपी इस एकता से चिंतित है, वहीं कांग्रेस अपने केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के अस्पष्ट रुख के चलते कशमकश में फंसी है।

ठाकरे बंधुओं की एकता: उत्साह और आशंका

उद्धव और राज ठाकरे का एक साथ आना महाराष्ट्र की सियासत में बड़ा उलटफेर है। मराठी भाषा और अस्मिता के मुद्दे पर दोनों भाइयों का एकजुट होना उद्धव समर्थकों के लिए उत्साह का कारण है, तो राज के समर्थक बीएमसी चुनाव में अपनी पार्टी की संभावनाओं को लेकर आशान्वित हैं। लेकिन इस एकता ने कांग्रेस को मुश्किल में डाल दिया है। एक तरफ बिहार विधानसभा चुनाव हैं, जहां हिंदी भाषी वोटरों की नाराजगी का खतरा है। दूसरी तरफ बीएमसी चुनाव, जहां ठाकरे बंधुओं के साथ न जाने पर कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कांग्रेस नेताओं का मानना है कि यह एकता मराठी अस्मिता के आंदोलन से प्रेरित है और इसका असर मुख्य रूप से मुंबई और बीएमसी चुनाव तक सीमित रहेगा। यही वजह है कि कांग्रेस ने ठाकरे बंधुओं की मराठी विजय रैली से दूरी बनाए रखी। सुप्रिया सुले भले ही इस रैली में शामिल हुईं, लेकिन उन्हें मंच पर जगह नहीं मिली। कांग्रेस नेताओं ने इस असहज स्थिति से बचने के लिए रैली से किनारा कर लिया।

कांग्रेस की चुप्पी, नेतृत्व की अनिर्णय की स्थिति

मराठी-हिंदी विवाद पर कांग्रेस का रुख साफ न होना पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। सूत्रों के मुताबिक, केंद्रीय नेतृत्व ने इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए हैं। महाराष्ट्र के कांग्रेस नेता हाईकमान की इजाजत के बिना कोई स्टैंड लेने से बच रहे हैं। हाल ही में एक घटना ने इस अनिर्णय की स्थिति को और उजागर किया। महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रभारी रमेश चेन्निथला ने विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्य के शीर्ष नेताओं को दिल्ली बुलाया। सभी राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की उम्मीद में गए, लेकिन न तो राहुल और न ही खड़गे उनसे मिले। नतीजा? नेता बिना किसी स्पष्टता के लौट आए।

केंद्रीय नेतृत्व ने नेताओं को ‘जय हिंद यात्रा’ और ‘संविधान सम्मान सम्मेलन’ जैसे आयोजनों की सलाह दी, लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसे कार्यक्रमों में जनता की भागीदारी नहीं होती। वे महज औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस समय कांग्रेस को बड़े आंदोलन की जरूरत है, लेकिन नेतृत्व इस पर खामोश है।

राज ठाकरे की छवि और कांग्रेस की चिंता

कांग्रेस नेताओं को लगता है कि ठाकरे बंधुओं का मिलन एक सोचा-समझा सियासी दांव है, जिसका मकसद बीएमसी चुनाव में फायदा उठाना है। लेकिन राज ठाकरे की हिंदी विरोधी और कट्टर मराठी हिंदुत्ववादी छवि कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब है। महाराष्ट्र में मुस्लिम मतदाता आज भी कांग्रेस का कोर वोट बैंक हैं। वहीं, मराठी, गुजराती और हिंदी भाषी मतदाता पहले ही बीजेपी और शिवसेना के गुटों की ओर खिसक चुके हैं। ऐसे में राज ठाकरे के साथ गठबंधन से अल्पसंख्यक वोटरों के नाराज होने का खतरा है, जो महाविकास अघाड़ी को कमजोर कर सकता है।

अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति

ठाकरे बंधुओं की एकता और मराठी भाषा विवाद को देखते हुए कांग्रेस के कई नेता चाहते हैं कि पार्टी बीएमसी और अन्य नगर निकाय चुनावों में अकेले उतरे। वरिष्ठ नेता शिवाजीराव मोघे का कहना है कि स्थानीय निकाय चुनाव खोई हुई जमीन वापस पाने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने का मौका हो सकते हैं। इस रणनीति को मुंबई, नागपुर, पुणे और नासिक में लागू करने की बात हो रही है। साथ ही, चुनाव बाद गठबंधन के लिए दरवाजे खुले रखने की सलाह दी जा रही है। इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत में होने वाले 29 नगर निगमों, 248 नगर परिषदों, 32 जिला परिषदों और 336 पंचायत समितियों के चुनाव कांग्रेस के लिए अपनी ताकत आजमाने का बड़ा मौका हैं।

उलझन में कांग्रेस, मौके की तलाश में

ठाकरे बंधुओं का मिलन महाराष्ट्र की सियासत में एक नया अध्याय शुरू कर सकता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह एक दोधारी तलवार है। एक तरफ गठबंधन की मजबूरी, तो दूसरी तरफ अपनी पहचान और वोट बैंक को बचाने की चुनौती। नेतृत्व की चुप्पी और अनिर्णय की स्थिति ने पार्टी की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। ऐसे में कांग्रेस के सामने सवाल यह है कि क्या वह इस सियासी तूफान में अपनी राह बना पाएगी, या फिर ठाकरे बंधुओं की एकता के सामने उसकी रणनीति धराशायी हो जाएगी? समय ही बताएगा।

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