वाराणसी, 24 नवंबर 2024, रविवार। रामकृष्ण अद्वैत आश्रम में हनुमान-चालीसा पर स्वामी विश्वात्मानन्द का प्रवचन हुआ। आश्रम अध्यक्ष ने भक्तों के आग्रह पर हनुमान चालीसा पर उसके गूढ़ार्थ को उद्भासित करते हुए प्रथम दोहे को व्याख्यायित किया।
उन्होंने कहा कि सनातन धर्म के अलंकारभूत परम पावन स्तोत्ररत्न श्रीहनुमान्-चालीसा की रचना का प्रारम्भ करते हुए गोस्वामीजी प्रतिज्ञा-वाक्य में सर्वप्रथम श्रीपदके प्रयोग से श्रीजीका स्मरण कर रहे हैं, जो समस्त मङ्गलों की खान हैं।
व्याकरण की दृष्टि से श्री शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए “समस्तनिगमाचार्यं सीताशिष्यं गुरोर्गुरुम्”, अर्थात् श्रीहनुमान्जी को सीताजीके शिष्य तथा देवगुरु बृहस्पतिजी के भी गुरुरुप में बताया। अतः श्रीहनुमान्जी की संतुष्टि के लिए प्रणीत श्रीहनुमान्-चालीसा के प्रारम्भ में उनकी आचार्या श्रीसीताजी का स्मरण अत्यन्त उपयोगी है, यही श्रीगुरु शब्दका अभिप्राय प्रतीत होता है।
हनुमान-चालीसा के प्रारम्भ में ‘रघुबर बिमल-जस बरनउँ’ यह वाक्यखण्ड एक जिज्ञासा का केन्द्र बन जाता है, तथा कुछ सामान्य मस्तिष्क वालों को असंगत प्रतीत होता है। पर विचार करने पर इसका सुगमतया समाधान हो जाता है। हनुमानजी श्रीराम के सर्वतोभावेन समर्पित भक्तों में अग्रणी हैं। रघुनाथजी के अतिरिक्त वे अपना किञ्चित् भी अस्तित्व मानने को तैयार नहीं हैं। यथा- “ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ॥”
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर तुलसीदास जी ने अभिधावृत्ति से श्रीराम के यश का वर्णन कर हनुमान्-चालीसा से मारुति को प्रसन्न किया तथा रघुवर-यशोभङ्गिमा से लक्षणावृत्ति द्वारा श्रीहनुमत्-यशोगान कर इस हनुमान्-चालीसा स्तोत्र को श्रीराम की प्रसन्नता का केन्द्र बना दिया। भाव यह है कि इससे प्रसन्न होकर हनुमानजी हनुमान्-चालीसा के पाठक को पुरुषार्थ-चतुष्टय दे डालते हैं। यद्वा सालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य-इन चारों मुक्तिफलों को देते हैं। अथवा धर्म, ज्ञान, योग, जप-इन चारों फलोंको देते हैं तथा ज्ञानवादियों को साधन-चतुष्टयसे संपन्न कर देते हैं।
हनुमान चालीसा पर हुए प्रवचन में काफी संख्या में भक्त उपस्थित थे, जिन्होंने हनुमान चालीसा की इतनी सुन्दर, सरस व सरल व्याख्या पहले कहीं नहीं सुनी थी। संध्यारती के पश्चात भक्तों को प्रसाद दिया गया।