नई दिल्ली, 4 अप्रैल 2025, शुक्रवार। प्रकृति के हरे-भरे आलिंगन को बेरहमी से काटने की घटनाएं अब सुप्रीम कोर्ट के निशाने पर हैं। हाल ही में, देश की सर्वोच्च अदालत ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर कड़ा रुख अपनाते हुए ऐसी टिप्पणी की, जो न सिर्फ कानूनी, बल्कि नैतिक और पर्यावरणीय संदेश भी देती है। कोर्ट ने साफ कहा, “कोई भी धर्म इस तरह पेड़ों को काटने की इजाजत नहीं देता।” यह बात तब सामने आई, जब एक मंदिर प्रबंधन द्वारा अवैध रूप से पेड़ काटने की याचिका पर सुनवाई हो रही थी।
जस्टिस अभय ओका और जस्टिस उज्जल भुयान की बेंच ने मंदिर प्रबंधन से दो टूक सवाल पूछा, “आप वन विभाग को प्रति पेड़ कितना मुआवजा देंगे? और कितने पेड़ लगाएंगे?” जवाब में मंदिर के वकील ने सफाई दी कि 300 पेड़ पहले ही लगाए जा चुके हैं और 100 और लगाने को तैयार हैं। साथ ही, उन्होंने गरीबी का हवाला देते हुए कहा, “यह बहुत गरीब मंदिर है, हमारे पास पैसे नहीं हैं।” लेकिन जस्टिस ओका ने इसे हल्के अंदाज में काटते हुए तंज कसा, “आने वाले त्योहार में लोग मंदिर में कुछ न कुछ चढ़ाएंगे न? तो जो भी चढ़ावा आए, उसे वन विभाग को दे दीजिए। बात खत्म।”
कोर्ट ने सुझाव दिया कि मंदिर प्रबंधन एक हलफनामा दे, जिसमें त्योहार के दौरान मिलने वाली चढ़ावे की राशि का ब्योरा हो। यह राशि मुआवजे के तौर पर वन विभाग को दी जाएगी। जस्टिस ओका की यह बात न सिर्फ व्यावहारिक थी, बल्कि एक संदेश भी देती थी—प्रकृति का नुकसान पैसों की कमी का बहाना नहीं बन सकता।
दूसरी ओर, हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पेड़ों की कटाई का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के रडार पर आया। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने इसे स्वत: संज्ञान में लेते हुए गहरी चिंता जताई। कोर्ट ने सवाल उठाया, “पेड़ों की तुरंत कटाई की ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी है?” बेंच ने इसे “बहुत गंभीर विषय” करार देते हुए राज्य के मुख्य सचिव को फटकार लगाई और पूछा, “क्या इस तरह के काम के लिए पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्रमाणपत्र लिया गया है?” मामले की गंभीरता को देखते हुए अगली सुनवाई 16 अप्रैल को तय की गई।
सुप्रीम कोर्ट का यह रुख सिर्फ कानूनी कार्रवाई नहीं, बल्कि एक जागरूक चेतावनी है। मंदिर हो या यूनिवर्सिटी, पेड़ों की कटाई का कोई भी बहाना अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि प्रकृति का सम्मान हर धर्म, हर संस्था और हर इंसान की जिम्मेदारी है। अब देखना यह है कि ये फैसले जमीन पर कितना असर दिखाते हैं, या फिर हरे-भरे जंगलों की जगह सिर्फ कागजी हलफनामे ही बचे रह जाते हैं।