नई दिल्ली, 11 जून 2025, बुधवार: सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498A और 406 के तहत दर्ज एक मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए कानून के दुरुपयोग पर सख्त रुख अपनाया है। कोर्ट ने पति, सास और पांच ननदों के खिलाफ दर्ज मामले को रद्द करते हुए कहा कि सामान्य और अस्पष्ट आरोपों के आधार पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। यह फैसला धारा 498A के बढ़ते दुरुपयोग को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया कि क्रूरता के गंभीर आरोपों के बावजूद शिकायतकर्ता कोई मेडिकल रिपोर्ट, गवाह का बयान या ठोस सबूत पेश करने में विफल रही। कोर्ट ने टिप्पणी की, “महज सर्वव्यापी और अस्पष्ट आरोपों के आधार पर दूर के रिश्तेदारों को फंसाना कानून का दुरुपयोग है।”
पुलिस अधिकारी द्वारा कानून का दुरुपयोग निंदनीय
मामले में शिकायतकर्ता एक पुलिस अधिकारी थी, जिसने अपने पति और उनके परिवार के खिलाफ धारा 498A के तहत क्रूरता और दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक पुलिस अधिकारी होते हुए शिकायतकर्ता ने आपराधिक तंत्र का इस तरह दुरुपयोग किया। वृद्ध सास-ससुर और रिश्तेदारों को झूठे आरोपों में फंसाना निंदनीय है।” कोर्ट ने इस मामले को कानून के दुरुपयोग का स्पष्ट उदाहरण बताते हुए इसे ‘कानूनी आतंकवाद’ की संज्ञा दी।
ठोस सबूतों की अनिवार्यता पर जोर
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ किया कि धारा 498A के तहत किसी भी मामले में ठोस सबूत और विशिष्ट आरोपों का होना जरूरी है। कोर्ट ने कहा कि सामान्य और अस्पष्ट आरोपों के आधार पर न तो अभियोजन शुरू किया जा सकता है औरपीठ ने यह भी जोड़ा कि वैवाहिक विवादों में अक्सर पति के पूरे परिवार को फंसाने की प्रवृत्ति देखी गई है, जो कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है।
कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग पर सख्ती
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तेलंगाना हाई कोर्ट के एक आदेश को भी खारिज किया, जिसमें पति के परिवार के सदस्यों पर लगाए गए आरोपों को बरकरार रखा गया था। कोर्ट ने कहा कि बिना ठोस सबूतों के सामान्य आरोप आपराधिक अभियोजन का आधार नहीं बन सकते। यह फैसला अचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य और यशोदीप बिसनराव वडोडे बनाम महाराष्ट्र राज्य जैसे पिछले मामलों में दिए गए दिशा-निर्देशों को और मजबूत करता है, जहां कोर्ट ने धारा 498A के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी।
निर्दोषों को बचाने की जरूरत
कोर्ट ने अपने फैसले में जोर दिया कि धारा 498A का मूल उद्देश्य महिलाओं को पति और ससुराल वालों की क्रूरता से बचाना है, लेकिन इसका दुरुपयोग निर्दोष व्यक्तियों को अनावश्यक परेशानी में डाल रहा है। कोर्ट ने संसद से भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 और 86 जैसे प्रावधानों में संशोधन कर दुरुपयोग को रोकने की अपील भी की।
पृष्ठभूमि और संदर्भ
धारा 498A को 1983 में भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था, ताकि विवाहित महिलाओं को दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से बचाया जा सके। हालांकि, हाल के वर्षों में इस कानून के दुरुपयोग की कई शिकायतें सामने आई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी सुषील कुमार शर्मा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2005) और राजेश शर्मा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश (2017) जैसे मामलों में इसके दुरुपयोग पर चिंता जताई थी। 2017 में कोर्ट ने परिवार कल्याण समितियों के गठन का आदेश दिया था, लेकिन 2018 में इसे संशोधित करते हुए पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार वापस दिया गया था।
प्रभाव और भविष्य
यह फैसला धारा 498A के तहत दर्ज होने वाले मामलों में सावधानी बरतने का स्पष्ट संदेश देता है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय न केवल निर्दोष व्यक्तियों को अनुचित अभियोजन से बचाएगा, बल्कि कानूनी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को भी मजबूत करेगा। साथ ही, यह फैसला उन महिलाओं के लिए भी एक चेतावनी है, जो इस कानून का दुरुपयोग कर व्यक्तिगत बदला लेने या अनुचित लाभ उठाने की कोशिश करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल कानूनी हलकों में चर्चा का विषय बना है, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी वैवाहिक विवादों और कानून के उपयोग को लेकर नए विमर्श को जन्म दे सकता है।