नई दिल्ली, 4 अप्रैल 2025, शुक्रवार। पत्रकारिता के मैदान में सच्चाई की कलम चलाने वाली ममता त्रिपाठी के मामले ने एक बार फिर सत्ता और स्वतंत्र आवाज़ के बीच की जंग को सुर्खियों में ला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025 को उत्तर प्रदेश सरकार को जमकर लताड़ लगाई और सवाल उठाया कि आखिर एक पत्रकार पर स्टोरी लिखने के लिए धारा 420 जैसे गंभीर अपराध की धारा कैसे और क्यों थोप दी गई? यह सवाल न सिर्फ सरकार की मंशा पर बल्कि पत्रकारिता की आज़ादी पर भी गहरी चोट करता है।
मामला क्या है?
सितंबर 2023 में लखनऊ के हज़रतगंज थाने में ममता त्रिपाठी के खिलाफ एक FIR दर्ज की गई थी। यह FIR सूचना विभाग में व्याप्त कथित अनियमितताओं और धांधलियों पर उनकी एक खोजी स्टोरी के बाद दर्ज हुई। खास बात यह है कि यह शिकायत उसी सूचना विभाग से जुड़ी एक कंपनी ने की थी, जिसके खिलाफ ममता ने अपनी कलम उठाई थी। दैनिक भास्कर में प्रकाशित उनकी रिपोर्ट ने विभाग के काले कारनामों को उजागर किया था, लेकिन जवाब में सच्चाई को दबाने के लिए उनके खिलाफ कानूनी हथियार उठा लिया गया।
FIR में ममता पर धारा 420 (धोखाधड़ी) और मानहानि जैसे आरोप लगाए गए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह साफ हो गया कि यह मामला पत्रकारिता को कुचलने की कोशिश का हिस्सा हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
सुनवाई के दौरान सीनियर वकील सिद्धार्थ दवे ने कोर्ट के सामने तर्क रखा कि मानहानि का मामला संज्ञेय अपराध (cognizable offense) नहीं है। फिर भी, इसे गंभीर बनाने और पत्रकार को परेशान करने के लिए धारा 420 जोड़ दी गई। दवे ने कहा, “यह साफ तौर पर सत्ता का दुरुपयोग है। एक स्टोरी लिखने के लिए धोखाधड़ी का आरोप लगाना न सिर्फ हास्यास्पद है, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला है।”
कोर्ट ने इस तर्क को गंभीरता से लिया और उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुई एडिशनल एडवोकेट जनरल गरिमा प्रसाद के बहस के तरीके पर भी नाराजगी जताई। जजों ने सवाल उठाया, “क्या स्टोरी लिखना अब अपराध हो गया है? क्या सरकार का काम सच को दबाना है?” इस सख्त रुख के बाद कोर्ट ने राज्य सरकार और डीजीपी को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा।
सरकार का टालमटोल
पिछले तीन महीनों से राज्य सरकार इस मामले में “जवाब दाखिल करने” के नाम पर कोर्ट से लगातार समय मांग रही थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस बार साफ कर दिया कि अब और ढील नहीं दी जाएगी। यह देरी न सिर्फ सरकार की गंभीरता पर सवाल उठाती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि शायद उसके पास ठोस जवाब ही नहीं है।
ममता त्रिपाठी की लड़ाई
ममता त्रिपाठी कोई नया नाम नहीं हैं। उनकी कलम हमेशा से सत्ता के गलियारों में हलचल मचाती रही है। सूचना विभाग की अनियमितताओं पर लिखी उनकी स्टोरी ने न सिर्फ चर्चा बटोरी, बल्कि सिस्टम की पोल भी खोल दी। इसके जवाब में उनके खिलाफ चार “फर्जी मुकदमे” दर्ज करवाए गए, जैसा कि उन्होंने खुद सोशल मीडिया पर दुष्यंत कुमार की पंक्तियों के साथ लिखा:
“मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं, मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।”
यह पंक्तियाँ उनकी हिम्मत और सच्चाई के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर 2024 में उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी और अब इस ताजा सुनवाई ने उनकी लड़ाई को और मजबूती दी है।
पत्रकारिता पर सवाल
यह मामला सिर्फ ममता त्रिपाठी का नहीं, बल्कि पूरे पत्रकार समुदाय का है। जब एक पत्रकार को सच लिखने की सजा मिलती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। सुप्रीम कोर्ट का यह सख्त रुख न सिर्फ ममता के लिए राहत की बात है, बल्कि उन तमाम पत्रकारों के लिए भी उम्मीद की किरण है जो सत्ता के दबाव में सच को सामने लाने की जद्दोजहद करते हैं।
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट का नोटिस और उसकी सख्त टिप्पणी उत्तर प्रदेश सरकार के लिए एक बड़ा झटका है। अब सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि सरकार चार हफ्ते में क्या जवाब देती है। क्या वह अपने कदम को सही ठहरा पाएगी, या यह साबित होगा कि यह कार्रवाई बदले की भावना से प्रेरित थी?
ममता त्रिपाठी का यह मामला एक मिसाल बन सकता है। यह सवाल उठाता है कि क्या सत्ता की आलोचना करना अपराध है? और अगर हां, तो फिर लोकतंत्र का मतलब क्या रह जाता है? सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला न सिर्फ ममता के भविष्य को तय करेगा, बल्कि भारत में पत्रकारिता की आज़ादी की दिशा भी तय करेगा।
फिलहाल, ममता की कलम और कोर्ट की चौखट पर सच्चाई की जीत की उम्मीद बरकरार है।