दौरा: एक विलुप्त परंपरा की जीवंत कहानी
गोरखपुर, 18 मार्च 2025, मंगलवार। आज के इस आधुनिक युग में, जहाँ तकनीक और मशीनों का बोलबाला है, गाँव की अनपढ़ महिलाओं का हुनर आज भी किसी चमत्कार से कम नहीं लगता। एक ऐसा समय था, खासकर 90 के दशक में, जब हर घर में बेटी-बहुओं की विदाई पारंपरिक तरीके से होती थी। उस समय विदाई के दौरान हाथ से बनी घरेलू चीजें, खासकर “दौरा”, देने की परंपरा थी। यह दौरा न सिर्फ एक उपयोगी वस्तु थी, बल्कि कला और मेहनत का अनूठा संगम भी थी। दुल्हन अपने नए घर में इसी दौरा में पैर रखकर प्रवेश करती थी, जो एक भावनात्मक और सांस्कृतिक रिवाज का हिस्सा था। लेकिन अफसोस, यह खूबसूरत परंपरा अब धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है।
सुई-धागे से सजी विरासत: गाँव की कला का आखिरी नमूना
दौरा बनाना कोई आसान काम नहीं था। गाँव की उन महिलाओं के लिए, जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा, यह हुनर 7-8 दिनों की कड़ी मेहनत का नतीजा होता था। घास-फूस, सुई-धागे और अपनी कल्पनाशीलता से वे फूल-पत्तियों की नक्काशी के साथ ऐसी कृति तैयार करती थीं, जो देखने वालों को हैरान कर दे। गोरखपुर जिले में आज भी इस हुनर की झलक देखने को मिलती है, हालाँकि यह कला अब गिनी-चुनी बुजुर्ग महिलाओं तक सिमट गई है। ऐसी ही एक महिला हैं दुर्गावती देवी। बिना किसी औपचारिक शिक्षा के, पाँच बच्चों की माँ दुर्गावती आज भी अपने हाथों से दौरा बनाती हैं। उनकी बनाई हर आकृति इतनी बारीक और सुंदर होती है कि कोई भी यह सोच सकता है कि यह किसी पढ़े-लिखे कलाकार का काम है।
हाथों की जादूगरी: जब अनपढ़ महिलाएँ बनाती थीं कला का खजाना
दुर्गावती बताती हैं कि यह हुनर उनके लिए सिर्फ समय बिताने का जरिया नहीं, बल्कि उनकी पहचान है। वे कहती हैं, “अगर कोई सीखना चाहे, तो मैं सिखाने को तैयार हूँ।” लेकिन उन्हें अफसोस है कि आज की पीढ़ी मोबाइल और शॉर्टकट की दुनिया में खोई है। लोग मेहनत और धैर्य से कुछ सीखने को तैयार नहीं। उनके मुताबिक, यह नजरिया न सिर्फ व्यक्तिगत नुकसान का कारण बन रहा है, बल्कि हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी मिटा रहा है।
घास-फूस से गढ़ी कला: गाँव की अनपढ़ महिलाओं का अनमोल हुनर
यह सच है कि हुनर किसी की बपौती नहीं होता। अगर दुर्गावती जैसी महिलाओं को सही मंच मिले, तो वे न सिर्फ अपने गाँव, बल्कि जिले और प्रदेश का नाम भी रोशन कर सकती हैं। उनकी यह कला हमें याद दिलाती है कि असली खूबसूरती किताबों या डिग्रियों में नहीं, बल्कि मेहनत, लगन और रचनात्मकता में छिपी होती है। जरूरत है तो बस इसे सहेजने और आगे बढ़ाने की। क्या हम इस अनमोल विरासत को फिर से जिंदा कर सकते हैं? यह सवाल आज हम सबके सामने है।