शायद ही कोई कला पारखी सम्पन्न परिवार ऐसा होगा जिस के घर चित्रकार सिद्धार्थ की कोई न कोई पेंटिंग न हो । इसके कारण हैं ।वह प्रकृतिप्रदत्त चित्रकार हैं ।उनके काम में मौलिकता और नयापन दीखता है ।उन्हें खोजी और यायावरी चित्रकार भी कहा जा सकता है और ऐसा बेजोड़ चित्रकार भी जिस के गुलदस्ते में हर किस्म के फ़ूल हैं -सैरे से लेकर रेखाचित्र, स्कैच, पेड़, पौधे, पहाड़,सागर, पशु पक्षी,मानव आकृतियां, सभी कुछ । उसने घर,खेत,नदी पहाड़,समुद्र को करीब से देखा और उनकी पेंटिंग बनाता चला गया ।पहाड़ी चढ़ाई चढ़ रहे हैं तो चित्र बना रहे हैं,बर्फीली चोटियों पर जाते वक़्त भी रेखाचित्र और अक्रैलिक में चित्र बनाये जा रहे हैं,समुद्र के किनारे बैठकर और समुद्र के अंदर रहते हुए भी चित्र बनाये हैं ।इसलिए उन्हें भूमि चित्रकार तथा आसमानी और सागरीय चित्रकार भी कहा और माना जाता है । वह टोही चित्रकार हैं।वह ऐसी पेंटिंग बनाते हैं जो बेमियाद हो और सदियों तक उसकी ताज़गी और नवीनता वैसी ही बनी रहे जो देखने वाले को भ्रमित कर दे और उसके मुहं से सहसा निकल जाये कि यह चित्र तो हाल ही का बना लगता है । यह सब करने के लिए सिद्धार्थ अपने रंग खुद बनाते हैं, वनस्पति और मिनरल दोनों ।मिनरल में पत्थरों के साथ सोना,चांदी, तांबा,पीतल आदि का भी वह इस्तेमाल करते हैं l वह विशुद्ध होता है । सांगानेर की लुगदी से बना विशेष ‘वसली’ कागज़ का वह प्रयोग करते हैं जो वर्षों तक ज्योँ का त्यों रहता है ।इस कागज और इसके इतिहास पर चर्चा उन पर लिखी जा रही मेरी पुस्तक में होगी ।उनके चित्रों में गजब का संयोजन रहता है,प्रमुखता नीले रंग की होती है ।
अपने कद्रदानों की ऐसी प्रतिक्रियाएं लेने के लिए वह बहुत परिश्रम करते हैं ।सिद्धार्थ जीनियस हैं, अपने काम के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हैं ।उनकी पहली गुरु उनकी माँ है जिसे उन्होंने बचपन से अपने बर्तन रंगने के लिए रंग बनाते देखा है ।वह बर्तन बनाती और गोंद मिलाकर मुलतानी मिट्टी,पीली मिट्टी, हिरमिचि (लाल),,नील की डली और गोंद कीकर का लाती ।माँ गोंद को पानी में घोल देती और कई दिनों तक रहने देती ।फिर उस घोल को अलग-अलग मिट्टी की कटोरियों में डाल कर धीरे-धीरे मुलतानी मिट्टी,पीली मिट्टी, हिरमिचि और नील को मिलाती और घोटती रहती कई-कई दिन । इन रंगों से माँ पेपरमाशी के बर्तनों पर बहुत ही खूबसूरत फूल बूटा बनाती थीं सिद्धार्थ बताते हैं ‘मौका देखकर मैं माँ की कटोरियों से रंग लेकर अपने हिसाब के सवालों वाली कापी में बेल बूटे,बड़ का पेड़,बेरी,चिड़िया,कबूतर, आम, अमरूद, किसान,बैल, बछड़ा आदि बना कर कापी भर देते ।यह हमारी पहली दीक्षा थी जो माँ के माध्यम से प्राप्त की थी । हमारे पड़ोस में ही तारा मिस्त्री थे जो मुझे रायकोट के किले के वह चित्र यह कह कर दीखाते थे कि रायकल्ला की हवेली में ऐसे बेलबूटों की भरमार है जो उन्होंने मुस्लिम मिस्त्रीयों से बनवाये थे।उस हवेली की छतों और दरवाजों पर बला की चित्रकारी है ।इस प्रकार अपने गांव के मिस्त्रियों से दीवाल चित्र बनाना सीखा । इसके बाद मैं साइनबोर्ड किया करता था ।इसे आप मक़बूल फिदा हुसैन से कन्फ़ियूस मत करिये ।वह फिल्मों के साइनबोर्ड बनाया करते थे ।’ अपनी इस कला में सिद्धार्थ इतना रमे कि पढ़ाई लिखाई छोड़ कर चौदह साल की उम्र में शोभा सिंह की शागिर्दी कर ली जहां वह सिख गुरु साहिबान के चित्र बनाने की विद्या सीखने के लिए चले गये ।
20 फरवरी, 1956 में लुधियाना ज़िले के रायकोट में सिख परिवार में जन्मे उनका मूल नाम हरजिंदर सिंह है ।उनके माता पिता और पुरखे मूलतः लायलपुर (अब पाकिस्तान) के हैं ।विभाजन के बाद वे रायकोट आ गये और एक किले में रहने लगे । रायकोट का ऐतिहासिक महत्व है ।यहां के रायकल्ला ने गुरु गोबिंद सिंह को जंगलों में ठहरा रखा था ।उन्होंने ही गुरु गोबिंद सिंह को शहज़ादों की शहादत की खबर दी थी ।तारा मिस्त्री ने इसी रायकल्ला की हवेली का ज़िक्र किया था ।कुनबा काफी बड़ा था लेकिन रायकोट में पुरखों ने एक गुरुद्वारा स्थापित किया था जहां पाठ और कीर्तन होता और लंगर भी लगता था ।कुछ समय बाद हरजिंदर सिंह अपने पिता जगतार सिंह और परिवार के साथ बसियां गांव आ गये ।यहां उन्होंने अलग गुरुद्वारा स्थापित किया जहां उनके पिता अपनी पूरी सेवायें दिया करते थे यानी पाठ करने की और कीर्तन करने की भी ।उनका यह नियम था कि जो भी गुरुद्वारे आयेगा लंगर छ्के बगैर नहीं जाएगा ।कुछ बच जाता तो परिवार खा लेता नहीं तो ‘वाहेगुरु जी ‘ का नाम लेकर सो जाता ।छोटा गांव था दर्शनार्थियों की तादाद भी उसी हिसाब से हुआ करती थी ।लेकिन जो भी चढावा आता वह ज़रूरतमंदों की सेवा पर ही खर्च होता था ।
हरजिंदर उर्फ़ सिद्धार्थ ने बताया कि हमारी पीढियों का संबंध तीसरे गुरु अमरदास जी से है ।वह इसलिए कि जब गुरु ग्रंथ साहब तैयार हो रहा था तो गुरुमुखी लिपि का ईज़ाद दूसरे गुरु अंगद देव जी ने किया था ।तीसरे गुरु को यह दायित्व सौंपा गया कि वह इसके रागों और उनके गायकों की व्यवस्था करें ।सिद्धार्थ के अनुसार उन गायकों में उनके पुरखे भी थे ।इसीलिए गुरुवाणी गायन की प्रथा हमें विरासत में मिली है ।इतना ही नहीं मेरे पिता और दादा और शायद परदादा को भी पूरा गुरु ग्रंथ साहब कंठस्थ था और मुझे भी है ।आप सिद्धार्थ को सदा गुरुवाणी गुनगुनाते हुए पायेंगे ।कभी कभी तो वह कीर्तनिये के अंदाज़ में कीर्तन भी करते हैं पूरे रागों के साथ ।प्रसिध्द कीर्तनिये भाई सुमंत सिंह रागी और भाई हरनाम सिंह रागी उनके मामा जी हैं ।
हरजिंदर सिंह से वह सिद्धार्थ कैसे बने इसकी भी दिलचस्प कहानी है । अपने गांव से अंधरेटा शोभा सिंह के पास छह माह तक रहे।उनसे विद्या प्राप्त की ।रोज़ सुबह उन्हें ‘जापुजी साहब का पाठ ‘ (सिखों का सुबह का पाठ है) सुनाते थे।एक दिन उनके साथ तिब्बतियों के गुरु से मिलने के लिए धर्मशाला गये और मैं भी साथ हो लिया ।अब मुझे तिब्बती थांगका चित्रकारी सीखने की चाहत थी ।इसलिए मैं वहीं रुक गया ।मुझे कहा गया कि इसके कुछ अनुष्ठान हैं जिसमें प्रमुख है लामा बनना । लामा बनने का मतलब केश कटवाना था ।निराश होकर वहां से मैं निकल पड़ा ।पहाड़ी रास्ता था ।एक जगह रात हो गयी ।कोई ठौर ठिकाना दीख नहीं रहा था ।अचानक एक जगह रोशनी दीखी ।भीतर चला गया ।एक अजीब किस्म का जीव बैठा था ।देखते ही बोला, ‘क्यों काम नहीं बना ।अब वापसी ।’इतने में उसने एक हड्डी चूसनी शुरू कर दी ।पूछा ‘चूसेगा’।वह मानव मांस की थी ।मुझे नींद आ गयी और मैं वहीं सो गया ।सुबह उठा तो मेरे सारे शरीर पर मल ही मल ।शुक्र है मैंने करवट नहीं बदली वर्ना सीधा नीचे नदी में जा गिरता ।पता चला कि रात मैं अघोरी के साथ था जिसे मानव मांस और उनका मल खाने की आदत होती है ।इसलिए जहां मैं लेटा था वहां मानव मल ही मल था ।तुरंत मैं वहां से निकला ।सारे कपड़े उतार कर फेंक दिये ।मेरे नीले रंग की पगड़ी और उसके भीतर मेरे बाल भी मल से सने हुए थे ।एक जांघिया पहने मैं नदी में कूद गया ।अच्छी तरह से मल मल कर अपने आप को धोया, बालों में से वह मल निकल नहीं रहा था ।दूर से देखा एक नाई किसी का मुंडन कर रहा था ।बड़ी मिन्नत करने पर वह मेरे बाल काटने को राज़ी हुआ और इसप्रकार मैं तिब्बती गुरु सांग एशे के पास पहुंच गया वहां पहले मेरा शुद्धीकरण हुआ,मैं लामा बन गया और दलाई लामा भी मुझे अपना आशीर्वाद दे गये ।मेरे गुरु ने मुझे अपना नाम देना चाहा लेकिन मैंने अपनी पहचान मांगी और इस प्रकार मैं हरजिंदर सिंह से सिद्धार्थ बन गया ।
लामा बनकर मैं धर्मशाला में रहने लगा ।कभी कभी दलाई लामा का भी सान्निध्य प्राप्त हो जाता और वह सिर से सिर टकरा कर आशीर्वाद भी दे जाते ।अब मेरी थांगका चित्रकारी का प्रशिक्षण शुरू हो गया था ।तिब्बती भाषा भी सीख ली थी ।दूसरे लामाओं के साथ बाहर जाना भी होता ।एक बार हम लोग हरिद्धार गये ।मुझे गुरु नानक की वह कथा याद हो आयी जब उन्होंने पंडों को सुबह सवेरे सूर्य को जल चढाते देख उनकी उल्टी दिशा में जल चढाना शुरू कर दिया ।आश्चर्यचकित पंडों ने गुरु नानक को यह बताया कि हम तो अपने पुरखों को यह जल अर्पित कर रहे हैं और आप उस तरफ जल क्यों चढ़ा रहे हैं ।इसपर गुरु नानक का उत्तर था ताकि मेरे गांव तलवंडी के खेतों तक पानी पहुंच सके ।पंडों का उत्तर था कि यह कैसे संभव है ।इसपर गुरु नानक की दलील थी कि जब आपका जल लाखों करोड़ों मील दूर बैठे आप के पुरखों तक पहुंच सकता है तो तलवंडी तो यहां से कुछ सैकड़ों मील पर ही होगी ।गुरु नानक के तर्क से वह निरुतर हो गये।हरिद्वार में जहां पंडों के साथ गुरु नानक का वार्तालाप हुआ था वहां नानकवाड़ा गुरुद्वारा है जहां बैठकर मैंने ने कीर्तन श्रवण किया और लंगर भी छका ।उसके बाद गंगा के उन सभी धामों को देखा जहां जहां गुरु नानक गये थे यथा ऋषिकेश,रुद्र प्रयाग, देव प्रयाग, मानसरोवर तक ।बाद में बनारस और कानपुर भी गया ।इन सभी स्थानों के रेखाचित्र और स्कैच भी तैयार किये, कुछ सादे तो कुछ चांदी के रंगद्रव्य में । लामा रहते हुए भी मेरा गुरुघर से प्रेम बरकरार रहा ।धर्मशाला से ही मैं तिब्बती गुरु के साथ स्वीडन गया । वहां भी अपनी चित्रकला को निखारा ।
जैसा हमने कहा कि सिद्धार्थ जिज्ञासु हैं जिसे लोग घुमक्कड़ चित्रकार भी कहते और मानते हैं ।उनकी ऐसी ही प्रवृति से प्रभावित होकर डॉ.एम.एस.रंधावा ने कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, चंडीगढ़ में पेंटिंग में पांच साला डिप्लोमा के लिए दाखिला करा दिया जिसका सारा खर्च रंधावा साहब ने वहन किया ।सिद्धार्थ ने पंजाब के गांवों का सघन दौरा कर वहां की लोक कलाओं की न केवल स्कैचींग की बल्कि उनकी फोटोग्राफी भी की । पंजाब की ललित अकादेमी ने उनकी विविध पेंटिंग के लिए उन्हें तीन बार पुरस्कृत किया । 2012 में पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला द्वारा उन्हें डी लिट् की मानदेय डिग्री से सम्मानित कर उनकी समग्र चित्रकारी को सराहा गया ।सिद्धार्थ बहुत तेज़ और फुर्तीले चित्रकार हैं,शायद एम. एफ.हुसैन की तरह ।उनकी ‘मूलमंत्र’ की पेंटिंग हज़ारों में बिक चुकी है ।इससे उन्हें जो भी पैसा प्राप्त हुआ है,संभवतः करोड़ों में, वह सारे का सारा पैसा 1984 के दंगा पीड़ितों के बच्चों,विशेष तौर पर बच्चियों, की पढ़ाई लिखाई और उनके पुनर्वास पर खर्च किया गया ।अन्य ज़रूरतमंदों की भी सिद्धार्थ मदद करते रहते हैं ।
सिद्धार्थ चित्रकारी के साथ साथ गुरुवाणी का गायन भी करते हैं और लेखन कार्य भी ।गुरु ग्रंथ साहब में ‘बारह माह’ का बहुत महत्व है ।उस पर उनकी एक पुस्तक भी है और उसके साथ यथोचित रेखाचित्र तथा सोने और चांदी के रंगद्रव्य में चित्र भी हैं ।उस पुस्तक के अनुसार चैत्र माह मध्य मार्च से लेकर मध्य अप्रैल तक रहता है जबकि अंतिम माह फाल्गुन फरवरी से मध्य मार्च तक ।इन सभी महीनों के महत्व, उनकी ऋतुओं, जलवायु आदि की जानकारी के साथ साथ पारिवारिक संबंधों का भी उल्लेख है ।ऐसी ही उनकी एक पुस्तक ‘दा डेकोरेटड काऊ’ में गाय की तमाम खूबियों और उपयोगिता पर विस्तृत और व्यापक तौर पर प्रकाश डाला गया ।यहां पर छपे गाय के चित्र सोने के रंगद्रव्य में हैं।’नेति-नेति’ में उनकी जीविनी की झलक मिलती है ।सिद्धार्थ की हर पुस्तक किसी न किसी नये नजरिये की प्रस्तुति है और सभी में उनकी अनुकूलता के मुताबिक रेखाचित्र,स्कैच और पेंटिंग्स हैं । निस्संदेह सिद्धार्थ आजके दौर के ‘हरफनमौला चित्रकार’ हैं जो बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक, बहुकेंद्रीय और बहुउद्देशीय हैं। कला पर्यवेक्षक कमलेश कुमार कोहली सिद्धार्थ को बहुआयामी प्रतिभा का ऐसा चित्रकार मानते हैं जो न केवल अपने आसपास की घटनाओं और वातावरण से ही परिचित है बल्कि किसी अनहोनी के प्रति भी जागरूक रहता है ।वह पूरी तरह से अपनी चित्रकारी के प्रति समर्पित है और कुछ न कुछ नया रचने और गढ़ने की जुगाड़ में रहता है ।कोहली जी की प्रतिक्रिया इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण है क्योकि उनकी पत्नी रीता कोहली अपने समय की आला दर्जे की चित्रकार थीं और उन्होंने देश और विदेश में कई कला प्रदर्शनियां आयोजित की थीं जिन्हें बहुत सराहा गया था ।काश कि आज वह हमारे बीच होतीं तो कला क्षेत्र का माहौल ही कुछ और होता ।
सिद्धार्थ प्रसिध्द कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल के दामाद हैं ।प्रयाग जी के अनुसार कला जगत में आज सिद्धार्थ बहुत बड़ा नाम है ।वह अपनी कला के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हैं और उनके चित्र सदा नयी ताज़गी और अनूठापन लिए रहते हैं ।प्रयाग जी की बेटी अंकिता (सिद्धार्थ की पत्नी) भी पेंटिंग करती हैं ।सिद्धार्थ को अपनी बेटी गौर्जा सिद्धार्थ पर बहुत नाज़ है ।वह इस समय गोल्डस्मिथ यूनिवर्सिटी,लंदन में पढ़ रही हैं और उनकी गायकी लाजवाब है ।गोल्डस्मिथ यूनिवर्सिटी में सर्वश्रेष्ठ बच्चों को ही ऐडमिशन मिलती है ।सिद्धार्थ कहते हैं कि उनकी बेटी ने हमारी विरासत को आगे बढ़ाया है ।बुनियादी तौर पर हम लोग हैं तो गायक, मैंने दूसरी लाइन अख्तियार कर ली,अच्छा लगता है कि मेरी बेटी वह सब कर रही है जिसकी अपेक्षा मेरे परिवार ने मुझ से की होगी ।सिद्धार्थ की यह सोच उनकी विनम्रता की हद है ।दिलचस्प बात यह है कि चित्रकार के अलावा सिद्धार्थ मूर्तिकार और वास्तुकार भी हैं । उन्होंने कई भवन डिज़ाइन किये हैं ।उनकी बेटी गौर्जा भी केवल गायिका ही नहीं अपितु चित्रकारी भी करती हैं अपनी माता पिता की तरह । आज सिद्धार्थ के जन्मदिन पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ।वाहेगुरु के आगे अरदास है कि वह दीर्घायु हों और अपनी चित्रकला, मूर्तिकला,वास्तुकला, गुरुवाणी तथा सामाजिक सरोकारों के प्रति ऐसे ही समर्पित रहें जैसे आज हैं ।गुरुवाणी के रागों पर आधारित उनका गायन आलौकिक है और उसे सुनकर बहुत सुकून की प्राप्ति होती है,ऐसा मेरा मानना है ।