मथुरा, 4 जून 2025, बुधवार। उत्तर प्रदेश के मथुरा में बांके बिहारी मंदिर, वह पावन स्थल, जहां हर भक्त का दिल ठाकुर जी के दर्शन को तरसता है, आज एक अनोखे विवाद की चपेट में है। यह मंदिर, जो सदियों से हिंदुओं की आस्था का केंद्र रहा है, अब एक नए तूफान के बीच खड़ा है। यूपी सरकार ने मंदिर के लिए एक भव्य कॉरिडोर बनाने का ऐलान किया है, और इसके लिए अध्यादेश भी जारी हो चुका है। लेकिन गोस्वामी समाज, जो बांके बिहारी की सेवा करता है, इस फैसले के खिलाफ खड़ा हो गया है। उनका कहना है, “मंदिर चाहिए? ले लो। जगह चाहिए? ले लो। पैसा चाहिए? वह भी ले लो। लेकिन ठाकुर बांके बिहारी हमारे हैं, हम उन्हें अपने साथ ले जाएंगे!”
गोस्वामी समाज का गुस्सा और उसका आधार
हाल ही में गोस्वामी समाज की एक बैठक हुई, जिसमें उन्होंने सरकार को खुली चुनौती दी। उनका कहना था, “ठाकुर बांके बिहारी महाराज हमारे पूर्वजों की तपस्या का फल हैं। हम उन्हें कहीं भी ले जा सकते हैं।” यह बयान सुनकर सवाल उठता है—क्या वाकई बांके बिहारी सिर्फ गोस्वामी समाज के हैं? जब मंदिर में हर जाति, हर वर्ग के भक्त आते हैं, तो फिर ठाकुर जी को किसी एक समुदाय का कैसे माना जा सकता है?
बांके बिहारी का प्रकट होना: एक दिव्य कथा
कहानी शुरू होती है स्वामी हरिदास महाराज से, जिन्होंने अपनी भजन साधना से ठाकुर बांके बिहारी को प्रसन्न किया। निधिवन की पवित्र भूमि पर ठाकुर जी ने स्वामी हरिदास को दर्शन दिए। तब से गोस्वामी समाज, जो स्वामी हरिदास के वंशज हैं, ठाकुर जी की सेवा में तत्पर रहा है। स्वामी हरिदास के दो भाई—जगन्नाथ और गोविंद—भी इस कथा का हिस्सा हैं। जगन्नाथ के तीन पुत्रों को ठाकुर जी की सेवा का अधिकार मिला, जो तीन हिस्सों में बंटी: शृंगार सेवा, राजभोग सेवा, और शयन भोग सेवा। समय के साथ शृंगार सेवा का वंश आगे नहीं बढ़ा, और यह सेवा बाकी दो सेवाओं में बंट गई। यह परंपरा आज भी कायम है, और गोस्वामी समाज इसे अपनी आध्यात्मिक विरासत मानता है।
हिमांशु गोस्वामी का दावा: “ठाकुर जी हमारे हैं”
हिमांशु गोस्वामी, जो मंदिर की सेवा में लगे हैं, ने बेबाकी से कहा, “ठाकुर बांके बिहारी हमारे पूर्वज स्वामी हरिदास की तपस्या का प्रतिफल हैं। जैसे घर में लड्डू गोपाल की मूर्ति होती है, और हम तय करते हैं कि दर्शन देना है या नहीं, वैसे ही ठाकुर जी हमारे हैं। हम चाहें तो दर्शन कराएं, न चाहें तो न कराएं।” उनका यह बयान मंदिर की सार्वजनिकता पर सवाल उठाता है। क्या भगवान, जो सबके हैं, किसी एक समुदाय के हो सकते हैं?
स्थानांतरण का इतिहास: क्या यह संभव है?
इतिहास गवाह है कि ठाकुर बांके बिहारी का स्थानांतरण पहले भी हो चुका है। निधिवन में प्रकट होने के बाद, ठाकुर जी को पहले भरतपुर ले जाया गया, और फिर वृंदावन में स्थापित किया गया। गोस्वामी समाज का दावा है कि अगर वे चाहें, तो ठाकुर जी को फिर से कहीं और ले जा सकते हैं। लेकिन क्या यह इतना आसान है? कानूनी तौर पर, मंदिर और उसकी संपत्ति सार्वजनिक होती है, जिस पर किसी एक समुदाय का एकमात्र अधिकार नहीं हो सकता।
आस्था और अधिकार का टकराव
यह विवाद केवल मंदिर और कॉरिडोर का नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा, और कानून का है। गोस्वामी समाज अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी और ठाकुर जी के साथ अपने आध्यात्मिक रिश्ते को बचाने की बात कर रहा है। दूसरी ओर, सरकार का कॉरिडोर प्रोजेक्ट भक्तों की सुविधा और मंदिर के विकास के लिए है। लेकिन सवाल वही है—क्या बांके बिहारी को कोई अपने साथ ले जा सकता है? और अगर ठाकुर जी चले गए, तो क्या मंदिर वाकई मंदिर रह जाएगा?