वाराणसी, 10 मार्च 2025, सोमवार। काशी नगरी, जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, पूरे विश्व में अपनी अनूठी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां होली का त्योहार भी एक अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। काशी में होली सिर्फ रंग-गुलाल से नहीं, बल्कि चिताओं की भस्म से खेली जाती है। हरिश्चंद्र घाट पर रंगभरी एकादशी का उत्सव मनाया गया। इस अवसर पर शिवभक्तों ने डीजे-ढोल और डमरू की ताल पर चिता भस्म से होली खेली। इस उत्सव में हजारों की संख्या में शिवभक्त शामिल हुए और उन्होंने श्मशान घाट पर जलती चिताओं के बीच में 2500 किलो चिता भस्म से होली खेली।
इस उत्सव को देखने के लिए 20 देशों से करीब 5 लाख पर्यटक काशी पहुंचे हुए हैं। कल यानी 11 मार्च को मणिकर्णिका घाट पर मसाने की होली आयोजित की जाएगी। इस बार महिलाएं मसाने की होली का हिस्सा नहीं बन पाएंगी, लेकिन वे नाव से महाश्मशान की होली देख सकती है। इस उत्सव के पीछे की कथा यह है कि रंगभरी एकादशी पर भगवान भोले नाथ ने माता पार्वती का गौना कराया था। माता काशी आईं तो गणों के साथ उन्होंने रंग-गुलाल से होली खेली, लेकिन श्मशान में बसने वाले भूतों, प्रेतों और किन्नर के साथ होली नहीं खेली गई। इसलिए अगले दिन भगवान शिव ने चिता की भस्म से होली खेली, ताकि उनके सभी भक्तों को खुशियों का अनुभव हो सके।
यह परंपरा तभी से चली आ रही है और आज भी काशी में मृत्यु को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि चिता की राख से होली खेलने से सुख-समृद्धि प्राप्त होती है और आत्मा का मोक्ष संभव होता है। काशी को मोक्ष भूमि माना जाता है, जहां मृत्यु को दु:ख नहीं बल्कि आत्मा की मुक्ति का उत्सव माना जाता है। मणिकर्णिका घाट को दुनिया का एकमात्र ऐसा श्मशान कहा जाता है, जहां चिताएँ कभी नहीं बुझतीं। शिव भक्त मानते हैं कि चिता की राख से होली खेलने से मृत्यु का भय समाप्त होता है और जीवन-मृत्यु के चक्र का सत्य समझ में आता है।