विवेक शुक्ला – लेखक
पिछले 50 सालों में दिल्ली का चेहरा-मोहरा बहुत बदल गया। नई सड़कें, फैलते रिहायशी इलाके, विशाल एनसीआर, और दिल्ली मेट्रो ने राजधानी को नया रूप दे दिया। लेकिन कुछ जगहें ऐसी हैं, जो इतिहास की गवाह बनी हुई हैं, और आज भी वैसी ही दिखती हैं, जैसी आपातकाल से पहले के उन उथल-पुथल भरे दिनों में थीं। रामलीला मैदान ऐसी ही एक जगह है। आज भी वो 25 जून 1975 की गूंज को समेटे हुए है। उस तपती गर्मी वाले दिन, विपक्षी दलों की विशाल रैली यहीं हुई थी। विपक्ष की रैली का मकसद इंदिरा गांधी सरकार की कथित “जनविरोधी” नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करना था। उस दौर में महंगाई, भ्रष्टाचार, और बेरोजगारी चरम पर थी।
आज भी उसी रामलीला मैदान में खड़े होकर, आप महसूस कर सकते हैं जब लोकनायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने कहा था “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!” रामधारी सिंह दिनकर की इन पक्तियों को सुनकर रामलीला मैदान में नारे गूंजने लगे थे। जेपी ने उसी मंच से सेना और पुलिस से सरकार के खिलाफ बगावत करने का आहवान किया था। जब जेपी ने पूछा, “क्या आप भारत में लोकतंत्र बचाने के लिए जेल जाने को तैयार हैं?” तो लाखों हाथ एक साथ उठ गए।
पास के हरहर उदासीन आश्रम से आए दर्जनों साधु भी नेताओं के जोशीले भाषणों को सुन रहे थे। वो उस जगह खड़े थे, जहां अब TRAI की बिल्डिंग है। क्या आपको कोई और ऐसी सियासी सभा याद है, जहां साधु भी नेताओं को सुनने आए हों?
दो युगों की कहानी
रामलीला मैदान का आसपास का नजारा दो युगों की कहानी कहता है। जिस मंच से 25 जून, 1975 को नेता बोले थे, वो 21 जनवरी 1961 को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के भाषण के लिए खास तौर पर बना था। उससे पहले हर सभा के लिए अस्थायी मंच बनते थे। अगर रामलीला मैदान से आसफ अली रोड की तरफ देखें, तो ज्यादा कुछ बदला नहीं; पुरानी इमारतें और माहौल कमोबेश पहले जैसा है। लेकिन जवाहरलाल नेहरू मार्ग की तरफ मुड़ें, तो ऊंची-ऊंची बिल्डिंग्स दिखती हैं, जिनमें दिल्ली की सबसे ऊंची, 101 मीटर की सिविक सेंटर भी है। 1975 में यहां सिंगल स्टोरी सरकारी दफ्तर और कुछ घर थे, जिनकी छतों पर लोग बैठे हुए थे। रैली शुरू होने से पहले ही वहां पांव रखने की जगह नहीं थी।
जीपीएफ में जेपी
रैली की घोषणा महज एक हफ्ते पहले हुई थी। जेपी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, राज नारायण, और प्रकाश सिंह बादल जैसे बड़े नेताओं ने गांधी शांति प्रतिष्ठान (जीपीएफ) में कई बैठकों के बाद फैसला लिया कि “लोकतंत्र बचाने” के लिए एक जनसभा करनी है, जो “श्रीमती गांधी की फासीवादी सियासत” के खिलाफ हो। ये बातें एक बार चंद्रशेखर ने इस लेखक को बताईं थीं। बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी आचार्य कृपलानी और विजयलक्ष्मी पंडित भी इन बैठकों में आते थे। जीपीएफ उस वक्त विपक्ष की गतिविधियों का केंद्र बन गया था, क्योंकि जेपी वहीं ठहरे थे।
जनसभा की तारीख और जगह पक्की होने के बाद, दिल्ली और आसपास के राज्यों से लोगों को लाने की जिम्मेदारी मदन लाल खुराना, वी.के. मल्होत्रा (जनसंघ), शांति देसाई, सिकंदर बख्त (कांग्रेस-ओ), संवाल दास गुप्ता (भारतीय लोकदल), और युवा अरुण जेटली (विद्यार्थी परिषद) जैसे स्थानीय नेताओं को दी गई थी। ये नेता रफी मार्ग के वी.पी. हाउस के लॉन में बैठकर सभा की तैयारी करते।
सूरत उगलता आग
25 जून 1975 को, सुबह से ही रामलीला मैदान में लोग उमड़ने लगे। मैं रामलीला मैदान के बगल में रहता था। उस दिन सुबह से ही लोग नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैदल आ रहे थे। दोपहर 1 बजे के बाद भीड़ तेजी से बढ़ने लगी। लोग झुंड में आ रहे थे। इनमें सियासी कार्यकर्ता, छात्र, और औरतें सब थे। उस दिन सूरज आग उगल रहा था। इसके बावजूद लोगों का रामलीला मैदान की तरफ आना थम नहीं रहा था। इनके पास छोटे-छोटे थैले थे। कुछ लोग थर्मस लिए थे, और कईयों ने गांधी टोपी पहनी थी।
मैदान रैली शुरू होने से पहले ही भर गया था। रैली से पहले जेपी के पुराने भाषणों की रिकॉर्डिंग्स गूंज रही थीं।
किसने की सदारत
रैली करीब 4 बजे शुरू हुई थी। सभा की सदारत मदन लाल खुराना कर रहे थे। उन्होंने ऐलान किया, “अब समय है कि हम अपने नेताओं को सुनें!” पहले उन्होंने नारे लगवाए: “आवाज दो, हम एक हैं!” और “जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा!”
पहले अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल बोले। वे पंजाबी में बोले। उन्होंने इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की। उनके बाद लालकृष्ण आडवाणी, आचार्य कृपलानी, राज नारायण, विजयलक्ष्मी पंडित, चरण सिंह, और चंद्रशेखर ने सरकार को आड़े हाथों लिया। कुछ स्थानीय नेता भी बोले।
जलवा अटल का
फिर खुराना ने सर्वप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी को बुलाया। जब वो बोलने आए, तो अंधेरा हो चुका था। शुरू से ही वो अपने रंग में थे, सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ाते हुए। विशाल भीड़ को देखकर उन्होंने कहा, “1 सफदरजंग रोड पर किसी को बहुत बेचैनी हो रही होगी, क्योंकि इतने लोगों का आना इस बात का सबूत है कि सरकार ने देश की जनता का भरोसा खो दिया है।”
अंत में जेपी की बारी थी। उन्हें सब सुनना चाहते थे। उन्हें खुराना की जगह प्रकाश बादल ने लंबी सी भूमिका के बाद बोलने के लिए बुलाया। उन्होंने अपने 85 मिनट के भाषण में इंदिरा गांधी से तुरंत इस्तीफे की मांग की। जब उन्होंने सेना, पुलिस, और सरकारी कर्मचारियों से “गैरकानूनी और अनैतिक” आदेश न मानने की अपील की, तो भीड़ सन्न रह गई।
जेपी का भाषण करीब रात के 9 बजे खत्म हुआ। उसके बाद वहां से सब लोग निकलने लगे। तब किसी ने भी सपने में नहीं सोचा था कि अगली सुबह जब वो उठेंगे, तो देश में आपातकाल लग चुका होगा।