हिन्दू धर्म की मान्यता के मुताबिक कोई भी व्यक्ति पूरी तरह नहीं मरता है और वह बार-बार जन्म लेता है, इसलिए पितृ पक्ष में पिंडदान और तर्पण कर पुरखों को खुश करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। पुरखों की आत्मा की शांति और मुक्ति के लिए एक पखवाड़े तक चलने वाला पितृ पक्ष 17 सितंबर से शुरू हो रहा है। हिन्दू धर्म के मुताबिक पिंडदान की परम्परा सिर्फ प्रयाग, काशी और गया में ही है, लेकिन पितरों के श्राद्ध कर्म की शुरुआत प्रयाग के मुंडन संस्कार से ही शुरू होती है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि काशी में शरीर का त्याग, कुरुक्षेत्र में दान और गया में पिंडदान का महत्व प्रयाग में मुंडन संस्कार कराए बिना अधूरा रह जाता है। प्रयाग मुंडे, काशी ढूंढे, गया पिंडे का सनातन धर्म में विशेष महत्व है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में मोक्ष यानी मुक्ति के देवता भगवान विष्णु माने जाते हैं। तीर्थराज प्रयाग में भगवान विष्णु बारह अलग-अलग माधव रूप में विराजमान हैं। मान्यता है कि गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती की पावन त्रिवेणी में भगवान विष्णु बाल मुकुंद स्वरुप में साक्षात वास करते हैं। यही वजह है कि प्रयाग को पितृ मुक्ति का पहला और सबसे मुख्य द्वार माना गया है। इसके अलावा काशी को मध्य व गया को अंतिम द्वार कहा जाता है। पितरों के श्राद्ध कर्म की शुरुआत प्रयाग में ही मुंडन संस्कार से होती है। यहां मुंडन कर अपने बालों का दान करने के बाद ही तिल, जौ और आते से बने सत्रह पिंडों को तैयार कर पूरे विधि विधान के साथ उनकी पूजा अर्चना कर उसे गंगा में विसर्जित करने और संगम में स्नान कर जल का तर्पण किये जाने की परम्परा है। ऐसी मान्यता है कि संगम पर पिंडदान करने से भगवान विष्णु के साथ ही तीर्थराज प्रयाग में वास करने वाले तैंतीस करोड़ देवी-देवता भी पितरों को मोक्ष प्रदान करते हैं।
वहीं, मोक्ष की नगरी काशी में महाश्मशान मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर अंतिम क्रिया के बाद श्राद्ध कर्म करने का विशेष विधान है। धर्म पुराणों में यह वर्णित है कि काशी में यदि किसी को मृत्यु मिलती है तो वह शिवलोक जाता है, लेकिन यदि मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति का पिंडदान तर्पण और श्राद्ध कर्म काशी में पूर्ण हो जाए तो उसे विष्णु लोक की प्राप्ति होती है, लेकिन इसके लिए काशी के गंगा घाटों के अलावा पिशाचमोचन कुंड एक ऐसा स्थान है जहां इस कर्म को करने का विशेष विधान है। यह वह स्थान है जहां प्रेत और पिशाच बांधे जाते हैं। कर्मकांडी पुरोहित शिव कुमार तिवारी का कहना है कि काशी में मृत्यु को खास माना जाता है। पितरों को पिंडदान करने से पहले प्रयागराज में जाकर मुंडन संस्कार कराना चाहिए। इसके बाद काशी में पिंडदान किया जाता है। प्रयाग को पितृ मुक्ति का पहला और सबसे मुख्य द्वार माना जाता है। काशी को मध्य और गया को अंतिम द्वार कहा जाता है।
गरुण पुराण में उल्लेखित एक कथा के अनुसार गया में जिन लोगों का पिंडदान किया जाता है, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। कथा के मुताबिक गया में माता सीता, प्रभु श्री राम और लक्ष्मण ने अयोध्या के राजा दशरथ का पिंडदान किया था। यहीं कारण है बिहार स्थित गया में पिंडदान करने का महत्व सबसे अधिक है। पौराणिक मान्यता के अनुसार गया में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति गया में पिंडदान की प्रक्रिया करता है, उसे भी मृत्यु के पश्चात मोक्ष की प्राप्ति होती है।
हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष को शुभ कामों के लिए वर्जित माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म कर पिंडदान और तर्पण करने से पूर्वजों की सोलह पीढ़ियों की आत्मा को शान्ति और मुक्ति मिल जाती है। इस मौके पर किया गया श्राद्ध पितृ ऋण से भी मुक्ति दिलाता है। मान्यताओं के मुताबिक़ कोई भी व्यक्ति जीवन में एक बार ही पिंडदान कर सकता है। हालांकि तर्पण और दान आदि की रस्मे कई बार निभाई जा सकती हैं।