चुनावी राजनीति में प्रवेश के बाद करीब ढाई दशक से बहुमत की सरकारों की कमान संभालने वाले नरेंद्र मोदी बतौर पीएम अपने तीसरे कार्यकाल में पहली बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व करेंगे। नई सरकार में बेहतर प्रदर्शन करने वाले टीडीपी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू और जदयू मुखिया व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मजबूत दखल होगा। उन्हें इस दौरान लोकसभा में प्रतिनिधित्व रखने वाले 12 सहयोगी दलों से भी तालमेल बना कर चलना होगा।
इस चुनाव में भाजपा ने अपने दम पर 240 सीटें हासिल की हैं। यह बहुमत से 22 कम है। दूसरी ओर टीडीपी के 16 तो जदयू के 12 सांसद जीते हैं। इन दोनों दलों के संयुक्त सीटों की संख्या 28 है। शिवसेना शिंदे गुट की सात सीटें हैं। इसके अलावा लोजपा (आर) ने पांच, जेएनपी, रालोद दो-दो, एनसीपी, अपना दल, एजीपी, हम, आजसू और एजीपी के पास एक-एक सीटें हैं। जाहिर तौर पर गठबंधन में नायडू, नीतीश का मजबूत दखल होगा। इसके अलावा शेष दस दलों को भी साधे रखने की चुनौती होगी।
गठबंधन सरकार के बावजूद नई सरकार की स्थिरता पर कई कारणों से खतरा नहीं होगा। बिहार में नीतीश को भाजपा की ताकत का अंदाजा है, जबकि बतौर सीएम नायडू को केंद्र के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। उनके अलग होने के बावजूद मोदी सरकार को बहुमत खोने का डर नहीं रहेगा। हां नीतीश राज्य के लिए विशेष पैकेज, जल्द चुनाव का दबाव बना सकते हैं। इसके अलावा बिहार में अब भाजपा के लिए नीतीश को चेहरा बनाए रखने की मजबूरी है।
भाजपा की योजना प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना कर पूरे देश में यूसीसी लागू करने, सभी तरह के चुनाव एक साथ कराने की दिशा में आगे बढऩे की थी। हालांकि गठबंधन सरकार होने के कारण यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इन अहम एजेंडे पर कैसे आगे बढ़ती है। गौरतलब है कि इससे पहले गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण वाजपेयी सरकार ने अनुच्छेद 370, राम मंदिर और यूसीसी को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था।
नई सरकार में पुरानी सरकार की तुलना में सहयोगियों का प्रतिनिधित्व बढ़ना तय है। बीती सरकार में मूल शिवसेना और अकाली दल के साथ छोड़ने के कारण सरकार में महज तीन सहयोगियों (आरपीआई, अपना दल और लोजपा-पारस) का ही प्रतिनिधित्व रह गया था। इस बार भाजपा के अल्पमत में होने के कारण ज्यादा सहयोगियों को मौका मिलना तय है। इसके अलावा इस बार मंत्रिमंडल में विभाग बंटवारे को लेकर भी संतुलन की स्थिति दिख सकती है।