हसमुख उवाच
भारत में नकल कला के सूरमा भारी संख्या में हैँ, आजादी के बाद मैकाले की कृपा से भारतीयों ने अंगरेजों की नकल की तो यह कहावत भी बन गयी कि _’अंगरेज चले गए औलाद छोड़ गए ‘!भारतीय होते हुए भी अंगरेज बनने की नकल में तो भारत के लोगो ने तो कीर्तिमान स्थापित किया है, जो भी विदेशी करें उसकी नकल करने में कोई भी पीछे नही रहना चाहता, बल्कि जो इस नकल को करने में पीछे है वह असभ्य और पिछड़ा है, अंगरेजों का नकलची ऐसे लोगो को हेय दृष्टि से देखता है और समझता है कि इस पृथ्वी पर केवल वही बुद्धि मान और आधुनिक है, लेकिन ऐसा नकलची यह नहीं सोचता कि भगवान ने जब हाथ दिए हैं तो छुरी कांटे की क्या जरुरत है?जब बैठ कर पालती मार कर खा सकते हैं तो डायनिंग टेबल की क्या जरूरत है? फटे कपड़े किसी काम के नही होते उनका कुछ और उपयोग किया जा सकता है, कपड़े सिल कर काम चलाया जा सकता है, लेकिन विदेशी चिथड़े पहनते हैं तो नकलची स्वयं भी चिथड़े पहन कर दिखाता है कि मैं कितना आधुनिक और सभ्य हूं!
नकल के पुरोधा इस बात को प्रचारित करते रहे हैँ कि पहले पुराने युग में मानव नंगा घूमता था, लेकिन भयी आज तो पुराना युग नही है, फिर क्यों नंगे घूम रहे हो? पुराने युग का नंगा असभ्य और इस युग का सभ्य, ये भी कोई बात हुई? बालीवुड की फिल्में नंगयी परोस कर यह तो साबित नहीं कर रही कि हम पुराने मानव की तरह आधुनिक नंगे हैं!
पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में भी नकल की कथित आधुनिक कला ने प्रवेश कर लिया, नकल की और पास हो गये, पढ़े लिखे और योग्य कहलाने का लाईसेन्स मिल गया, नकली डिग्रियों का मामला आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है, नकल के पुरोधा इस क्षेत्र में खूब मिल जाते हैं, विदेशी फिल्मों की नकल हमारे देश में चलती ही है, पश्चिम का संगीत, पश्चिम का गीत, पश्चिम की भाषा, पश्चिम का रहन सहन, जीवन शैली आदि सभी में नकल के पुरोधा अग्रणी हैं, इसके लिये पश्चिम के रोगों का भी भारत में नकल के पुरोधा स्वागत करते है!
देश में नकल की प्रवृत्ति इतनी बढ़ गई हैं कि कला की तरह कविता, साहित्य, लेखन की भी मौलिकता को कालापानी की जेल में भेज दिया गया है। शब्द दूसरी भाषा का अपना लिया जाए स्वीकार है, लेकिन जब शब्द न तो अपनी भाषा का रहे और न दूसरों की भाषा का, तो उस शब्द को वर्णसंकर शब्द ही कहने पर विवश होना पड़ता है, जैसे एक रोडवेज बस स्टेशन पर लिखा देखा ‘स्टेशनाधयक्ष’अब इस शब्द को वर्णसंकर शब्द न कहें तो क्या कहें?
एक नेता जी के मुख से हमने सुना ‘टाईमाभाव’के कारण मै आ नहीं सकता था फिर भी मैं इस लिए आ गया क्योंकि आपने मुझे ‘रिस्पेक्ट पूर्वक ‘बुलाया था! नेता जी के श्रीमुख से हमने इन दो वर्णसंकर शब्दों को सुना तो हम धन्य हो गये, ऐसे वर्णसंकर शब्दों की उत्पति नकल के पुरोधा करते चले आए हैं और शायद भविष्य में भी करते रहेंगे, नकल करना बंदर भी जानते हैं, परंतु नकल की आदत मनुष्य भी अपनाने लगें तो उन्हें बंदर ही कहा जाएगा! विदेशी लोग कहते ही रहे हैँ कि मनुष्य बंदर की औलाद है, हमें यदि मनुष्य बनना है तो हमें नकल की आदत छोड़नी होगी, तभी हम मनुष्य बन पाएंगे वरना बंदर ही कहलाएंगे !
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