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Friday, January 31, 2025

ममता कुलकर्णी और लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी महामंडलेश्वर पद से निष्काषित

नई दिल्ली, 31 जनवरी 2025, शुक्रवार। प्रयागराज में जारी महाकुंभ 2025 को लेकर एक बड़ी खबर सामने आ रही है। ममता कुलकर्ण किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर बनी थीं। लेकिन अब उनसे यह उपाधि छीन ली गई है। इसके साथ ही ममता को यह पद देने वाले लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को भी अखाड़े से निष्कासित कर दिया है। किन्नर अखाड़े के संस्थापक ऋषि अजय दास ने बॉलीवुड अभिनेत्री ममता कुलकर्णी और लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी पर बड़ा एक्शन लेते हुए दोनों को महामंडलेश्वर पद से हटाने का निर्देश दे दिया है।
ऋषि अजय दास ने एक पत्र जारी करके इसकी जानकारी दी है। पत्र में उन्होंने बताया है कि ममता कुलकर्णी को महामंडलेश्वर पद पर नियुक्त करने का निर्णय गलत था। उन्होंने कहा है कि ममता कुलकर्णी को यह पद देने से पहले अखाड़े की परंपरा और नियमों का पालन नहीं किया गया। इसके अलावा, ऋषि अजय दास ने लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी को भी महामंडलेश्वर पद से हटाने का निर्देश दिया है। उन्होंने कहा है कि लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने ममता कुलकर्णी को महामंडलेश्वर पद पर नियुक्त करने में गलती की है। मैं बेमन से लक्ष्मी नारायण को उनके पद से हटा रहा हूं। जल्द ही नए सिरे से अखाड़े का पुनर्गठन किया जाएगा और नए आचार्य महामंडलेश्वर के नाम का ऐलान होगा। इन लोगों ने वो गलतियां की हैं जो सनातन धर्म और अखाड़े के विरुद्ध हैं।
ऋषि अजय दास ने कहा कि मैंने 2015 में किन्नर अखाड़े की स्थापना की थी और सतत कार्य कर रहा हूं। इस अखाड़े का निर्माण करने का और गठन करने का उद्देश्य था कि धार्मिक कार्य किए जाएं, धार्मिक कर्मकांड किए जाएं, कथाएं की जाएं, यज्ञ किए जाएं। लेकिन इन्होंने (लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी) कुछ भी नहीं किया। तब भी हमने इन्हें बर्दाश्त किया। लेकिन जब इन्होंने एक देशद्रोही और देशद्रोह में लिप्त स्त्री को आते ही महामंडलेश्वर की पदवी दे दी। यह बहुत ही गलत कार्य किया। उन्होंने कहा, जब राष्ट्रहित की बात आएगी, देशहित की बात आएगी, समाजहित की बात आएगी तो मेरे जैसे व्यक्ति को खड़ा होना पड़ेगा और इसलिए यह सब घटनाक्रम देखते हुए और इनके भटकाव को देखते हुए मैं आज ममता कुलकर्णी और लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी को उनके पदों से मुक्त करता हूं।
इस फैसले के बाद से किन्नर अखाड़े में बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। कई लोगों ने ऋषि अजय दास के इस फैसले का समर्थन किया है, जबकि कुछ लोगों ने इसका विरोध किया है। यह घटना एक बार फिर से यह सवाल उठाती है कि धार्मिक संस्थाओं में नेतृत्व कैसे चुना जाना चाहिए। क्या धार्मिक संस्थाओं में नेतृत्व के लिए राजनीतिक और सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है? यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।

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