मुंबई, 3 जुलाई 2025: महाराष्ट्र की राजनीति में उत्तर प्रदेश (यूपी) और बिहार के प्रवासियों के खिलाफ बयानबाजी और हिंसा का मुद्दा लंबे समय से चर्चा का केंद्र रहा है। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से लेकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे तक, कई क्षेत्रीय नेता उत्तर भारतीयों को निशाना बनाकर वोट बैंक की राजनीति करते रहे हैं। उनका दावा है कि यूपी और बिहार के लोग स्थानीय मराठियों की नौकरियों को “हड़प” रहे हैं और कम वेतन पर काम करके स्थानीय श्रमिकों के अवसर छीन रहे हैं। यह मुद्दा न केवल चुनावी सभाओं में गूंजता है, बल्कि सामाजिक तनाव को भी बढ़ावा देता है। लेकिन क्या वाकई उत्तर भारतीयों का जाना महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होगा, या यह एक खतरनाक मिथक है?
चुनावी मुद्दा: उत्तर भारतीयों को “खदेड़ने” का वादा
पिछले कुछ दशकों से महाराष्ट्र की राजनीति में उत्तर भारतीयों को निशाना बनाने का चलन रहा है। 2008 में, राज ठाकरे ने मनसे के बैनर तले उत्तर भारतीयों, खासकर बिहारियों, के खिलाफ अभियान चलाया था। उनके समर्थकों पर उत्तर भारतीय श्रमिकों और छोटे व्यवसायियों के खिलाफ हिंसा के आरोप लगे। हाल ही में, सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट्स में दावा किया गया कि मनसे कार्यकर्ता उत्तर भारतीयों को मराठी न बोलने पर निशाना बना रहे हैं, और बीजेपी की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है।
शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने भी अपने मुखपत्र ‘सामना’ में बिहारियों पर तीखे हमले किए थे, जिसमें “एक बिहारी, सौ बीमारी” जैसे बयान शामिल थे। यह बयानबाजी न केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा रही है, बल्कि क्षेत्रीय अस्मिता को उभारने का भी एक हथियार बनी है। राज ठाकरे और अन्य क्षेत्रीय नेताओं का तर्क है कि उत्तर भारतीय कम वेतन पर काम करके स्थानीय मराठियों की नौकरियों को खतरे में डाल रहे हैं।
उत्तर भारतीयों पर आरोप: सस्ता श्रम, मराठियों का नुकसान?
महाराष्ट्र, विशेष रूप से मुंबई, में लाखों उत्तर भारतीय श्रमिक निर्माण, परिवहन, आतिथ्य, और छोटे व्यवसायों जैसे क्षेत्रों में काम करते हैं। स्थानीय लोगों का दावा है कि ये प्रवासी कम वेतन पर काम करने को तैयार रहते हैं, जिससे मराठियों को उनकी मनचाही सैलरी नहीं मिल पाती। एक स्थानीय निवासी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “यूपी और बिहार के लोग कम पैसे में काम करते हैं। इससे कंपनियां उन्हें प्राथमिकता देती हैं, और हमें नौकरी मिलने में दिक्कत होती है।”
हालांकि, अर्थशास्त्रियों और सामाजिक विश्लेषकों का कहना है कि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है। मुंबई विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर डॉ. संजय देशमुख बताते हैं, “उत्तर भारतीय श्रमिकों ने मुंबई की अर्थव्यवस्था को मजबूती दी है। वे उन नौकरियों में काम करते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग अक्सर करने से हिचकते हैं, जैसे निर्माण कार्य, रेहड़ी-पटरी व्यापार, और ड्राइविंग। अगर ये श्रमिक चले गए, तो मुंबई की अर्थव्यवस्था ठप हो सकती है।”
हकीकत: उत्तर भारतीयों के बिना मुंबई अधूरी?
मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है, और इसका बड़ा हिस्सा उत्तर भारतीय प्रवासियों के योगदान पर टिका है। एक अनुमान के मुताबिक, मुंबई की कुल आबादी का लगभग 30-40% हिस्सा प्रवासी मजदूरों का है, जिनमें यूपी और बिहार के लोग प्रमुख हैं। ये लोग न केवल कम वेतन वाली नौकरियों में योगदान देते हैं, बल्कि छोटे व्यवसाय, जैसे कि सब्जी बेचना, टैक्सी चलाना, और खाद्य स्टॉल चलाना, भी संभालते हैं।
2018 में निजी चैनल की एक रिपोर्ट में वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार ने कहा था, “यूपी और बिहार के लोग न केवल मेहनती हैं, बल्कि सरकारी नौकरियों, खासकर यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में भी शानदार प्रदर्शन करते हैं। इस वजह से उन्हें अन्य राज्यों में प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जाता है।” लेकिन इस प्रतिस्पर्धा को क्षेत्रवाद से जोड़ना गलत है, क्योंकि पलायन देश के हर हिस्से में होता है। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के मजदूर भी बिहार में काम करते हैं।
सियासी खेल या सामाजिक खतरा?
उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयानबाजी को कई विश्लेषक सियासी हथकंडा मानते हैं। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण और क्षेत्रीय अस्मिता जैसे मुद्दों को भुनाने के लिए उत्तर भारतीयों को आसान निशाना बनाया जाता है। हाल के सोशल मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया कि बीजेपी की सरकार राज ठाकरे के सामने “सरेंडर” कर चुकी है, और उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसा को रोकने में नाकाम रही है।
हालांकि, इन दावों की सत्यता की स्वतंत्र पुष्टि नहीं हो सकी है। बीजेपी और शिवसेना (शिंदे गुट) की अगुवाई वाली महायुति सरकार ने 2024 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत हासिल की थी, जिसमें विकास और हिंदुत्व जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी गई थी। लेकिन उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयानबाजी और हिंसा की शिकायतें समय-समय पर सामने आती रहती हैं।
आगे की राह: एकता या विभाजन?
उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान न केवल सामाजिक तनाव को बढ़ाता है, बल्कि महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बजाय सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो स्थानीय और प्रवासी श्रमिकों के बीच संतुलन बनाए। डॉ. देशमुख सुझाते हैं, “महाराष्ट्र सरकार को स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम्स शुरू करने चाहिए, ताकि स्थानीय युवाओं को बेहतर नौकरियां मिल सकें। साथ ही, प्रवासियों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक कामकाजी माहौल सुनिश्चित करना होगा।”
उत्तर भारतीयों के बिना मुंबई की चमक फीकी पड़ सकती है। सवाल यह है कि क्या महाराष्ट्र की राजनीति इस सच्चाई को स्वीकार करेगी, या क्षेत्रवाद का यह खेल और तेज होगा? यह समय ही बताएगा।