N/A
Total Visitor
28.7 C
Delhi
Tuesday, July 1, 2025

महामना के वैज्ञानिकों को सैकड़ों मौत रोकने का मिल गया फार्मूला!

मानव के पाचनतंत्र के आधार पर तैयार किया बाढ़ नियंत्रण का मॉडल

वाराणसी। गंगा में आने वाली बाढ़ प्राकृतिक आपदा नहीं है। गंगा के साथ किए गए मानवीय बदलावों के कारण गंगा के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ की घटनाएं बढ़ी हैं। तीन से चार दशक के भीतर ही गंगा के बहाव और प्रकृति में बड़ा बदलाव हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण गंगा में बढ़ रही बालू की मात्रा है। यह शोध बीएचयू के नदी विज्ञानी प्रो. यूके चौधरी ने किया है। उन्होंने बाढ़ से निजात दिलाने के लिए मानव की पाचन क्षमता को आधार बनाकर मॉडल भी तैयार किया है और इसका प्रस्ताव जलसंसाधन मंत्रालय को भी भेजा है।

प्रो. यूके चौधरी का कहना है कि गंगा में अनियंत्रित और अधिक जल का बेसिन में प्रवाह होता है। इसे गंगा पूरी तरह से निस्तारित नहीं कर पाती है और इसके कारण ही बाढ़ आती है। यह क्रिया जब कम समय के लिए तथा स्थानीय होती है तो इसे इननडेसन कहते हैं। गंगा जब पहाड़ पर होती है, इसका बेसिन छोटा होता है। वर्षा ज्यादा होती है पर पहाड़ का तीक्ष्ण ढाल, बाढ़ की समस्या को साधारणतया पैदा नहीं होने देता। यही गंगा जब समतल भूमि पर पहुंचती है तो बेसिन-क्षेत्र बढ़ता जाता है, रन ऑफ बढ़ता जाता है तथा नदी का ढाल कम होता जाता है। इसलिए बाढ़ की समस्या नीचे बढ़ती जाती है। बाढ़ की समस्या का निदान पहाड़ पर बनने वाले बांध से नहीं हो सकता है। बांधों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और इसी अनुपात में बाढ़-प्रभावित क्षेत्र बढ़ते चले जा रहे हैं। मानव की पाचन क्षमता के अनुसार ही गंगा का प्रवाह भी है और मानव की पाचन क्षमता के अनुसार ही नदी में बाढ़ को नियंत्रित किया जा सकता है। इसी को आधार मानते हुए बाढ़-नियंत्रण का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है।

भंडारण और उचित प्रबंधन है बाढ़ नियंत्रण का उपाय

प्रो. चौधरी ने मानव की पाचन क्षमता के आधार पर तैयार बाढ़ नियंत्रण मॉडल का उल्लेख करते हुए कहा कि यदि अतिरिक्त भोजन का भंडारण और उचित प्रबंधन किया जाए (जो अलग-अलग घरों में अलग-अलग होता है) और फिर उसे धीमी गति से खाया जाए तो उल्टी की समस्या उत्पन्न नहीं होगी। इसी प्रकार वर्षा जल को खेत में ही मेड़ की सहायता से तथा तालाबों में भी संग्रहित किया जा सकता है। भूमि की सतह का ढलान/आकृति और उसकी मिट्टी की विशेषताएं बांध के आयाम और स्थान और तालाब की विशेषताओं को परिभाषित करती हैं। यहां से पानी को धीरे-धीरे जमीनी और सतही अप्रवाह के रूप में नदी में प्रवाहित किया जाता है। इस प्रकार, गंगा में बाढ़ की समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इस पद्धति से भूजल का भंडारण बढ़ेगा, नदी में रसायनों और मिट्टी के प्रवाह पर नियंत्रण होगा, प्रदूषक भार कम होगा, नदी का तल तेजी से ऊपर नहीं उठेगा और बाढ़ की संभावना कम होगी। बाढ़ का एक समाधान बड़े-बड़े बांध नहीं, बल्कि जमीन और तालाबों का मेड़ है।

अतिक्रमण ने कम कर दी है क्षमता

मनुष्य के पेट पर पड़ने वाला बाहरी दबाव उसकी भंडारण क्षमता और पाचन क्षमता को कम कर देता है। इस स्थिति में अगर वह अधिक खाना खा लेता है तो उसे उल्टी हो जाती है। इसलिए, गंगा के बाढ़ क्षेत्र के अतिक्रमण के साथ, अधिक पानी जमा करने और बाढ़ के पानी को जल्दी से निपटाने की बाढ़ क्षेत्र की क्षमता कम हो गई है। सभी नदियों की यही समस्या है. इससे बाढ़ की ऊंचाई, बाढ़ की तीव्रता और मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है।

पेट की पथरी की तरह है मैदानी क्षेत्रों जमा बालू

प्रो. चौधरी का कहना है कि पथरी के विभिन्न आकार जिस तरह हमारी पाचन क्रिया को विभिन्न रूपों से प्रभावित करते हैं। उसी तरह बालू-क्षेत्र के विभिन्न आकार का प्रभाव नदी के शक्ति-क्षरण से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित है। यही बाढ़ की रूप-रेखा, मिट्टी के कटाव आदि को निर्धारित करते हैं। जिस तरह से पथरी पेट की सारी समस्याओं को परिभाषित करती है। उसी प्रकार बालू- क्षेत्र की ऊंचाई सबसे ज्यादा कहां है और बालू कितना है, यह नदी-समस्या का वर्णन करती है। नदी की अनुप्रवाह लंबाई बढ़ने के साथ बाढ़ की समस्या गंभीर हो जाती है। नदी की वक्रता बढ़ जाती है। बाढ़ का मैदान और बेसिन क्षेत्र बड़ा हो जाता है। प्रतिरोध बलों में वृद्धि के साथ नदी का निर्वहन बढ़ जाता है। नदी और उसके बाढ़ के मैदान की चौड़ाई आपस में जुड़ी हुई हैं और दोनों अनुप्रवाह दूरी के साथ बढ़ती हैं। भंडारण क्षमता को बनाए रखने के लिए बाढ़ के मैदान का सीमांकन करना आवश्यक है। पथरी का जमाव जितना ज्यादा बढ़ेगा, मानव-शरीर की रक्त-संचार की प्रक्रिया उसी अनुपात में एक जगह संघनित होगी, और शरीर की कोशिकाएं टूटेंगी। इसी तरह नदी पेट (उन्नत्तोदर किनारे) में बालू जितनी ज्यादा मात्रा में जमा होता जाएगा, नदी का वेग उसी अनुपात में नतोदर किनारे की ओर बढ़ेगा, तथा किनारे की मिट्टी कटेगी तथा वक्रता बढ़ेगी।

पहले ही निपटा जा सकता है बाढ़ से

प्रो. चौधरी का कहना है कि हमारे शरीर में बड़ी समस्यायें एकाएक नहीं आ जाती, उनके होने के लक्षण बहुत पहले से दिखाई देने लगते हैं। हमारी अनभिज्ञता एवं असावधानी के कारण यह भयावह होकर उभरती है। उसी प्रकार नदी में बाढ़ एवं अन्य समस्याओं के होने के लक्षण नदी के बदलते स्वरूप (”मॉरफोलॉजी” एवं ”एनाटोमी”) से समझ में आने लगते हैं। बाढ़ आने के कारणों को नदी में आसानी से देखा और समझा जा सकता है और इसकी समुचित व्यवस्था बाढ़ आने से पहले की जा सकती है।

Advertisement

spot_img

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

2,300FansLike
9,694FollowersFollow
19,500SubscribersSubscribe

Advertisement Section

- Advertisement -spot_imgspot_imgspot_img

Latest Articles

Translate »