नागपुर, 5 जून 2025, गुरुवार: “राष्ट्र सर्वोपरि, समाज समर्पण” – यह नारा नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, यानी ‘गुरुजी’, ने अपने विचारों और कर्मों से जीवंत किया। एक साधारण परिवार में जन्मे इस महान चिंतक ने न केवल संघ को देशव्यापी संगठन बनाया, बल्कि करोड़ों युवाओं के दिलों में देशभक्ति और अनुशासन की लौ जलाई।
प्रारंभिक जीवन: प्रतिभा का अनूठा संगम
19 फरवरी 1906 को नागपुर के निकट रामटेक में जन्मे गुरुजी बचपन से ही असाधारण थे। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी पर उनकी पकड़ और विज्ञान में एमएससी की पढ़ाई ने उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की भूमिका दी। छात्रों के बीच उनकी सादगी और विद्वता ने उन्हें ‘गुरुजी’ का प्रिय नाम दिलाया। पढ़ाई के साथ-साथ खेल, संगीत और दर्शन में उनकी रुचि ने उन्हें बहुमुखी प्रतिभा का धनी बनाया। मछलियों पर शोध शुरू किया, लेकिन आर्थिक तंगी ने इसे अधूरा छोड़ दिया। फिर भी, उनकी जिज्ञासा और समर्पण कभी कम नहीं हुआ।
संघ से जुड़ाव: जीवन का नया मोड़
बनारस में ही गुरुजी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से पहला परिचय हुआ। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से उनकी मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। 1937 में उन्होंने संघ को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। मात्र 34 वर्ष की उम्र में, 1940 में डॉ. हेडगेवार के निधन के बाद, गुरुजी को सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह वह दौर था जब संघ अभी अपने प्रारंभिक चरण में था, लेकिन गुरुजी ने इसे एक विशाल वैचारिक और सांस्कृतिक आंदोलन में बदल दिया।
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का दर्शन
गुरुजी का मानना था कि भारत की आत्मा उसकी संस्कृति में बसती है। उनकी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में उनके विचारों की स्पष्ट झलक मिलती है। वे कहते थे, “भारत एक हिंदू राष्ट्र है, जहां हर नागरिक, चाहे वह किसी भी पूजा-पद्धति को माने, सांस्कृतिक रूप से हिंदू है।” इस विचार ने न केवल संघ को दिशा दी, बल्कि देशभर में राष्ट्रवाद की भावना को बल दिया। उन्होंने 65 से अधिक यात्राओं के जरिए देश के कोने-कोने में लोगों से जुड़कर संघ को जन-जन तक पहुंचाया।
चुनौतियों में नेतृत्व की मिसाल
1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध ने संगठन को मुश्किल में डाल दिया। लेकिन गुरुजी के शांतिपूर्ण और रणनीतिक प्रयासों ने छह महीने में ही प्रतिबंध हटवा लिया। इस कठिन दौर में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और संघ को लाखों कार्यकर्ताओं का विशाल संगठन बनाया। उनके नेतृत्व में संघ ने सामाजिक सेवा, शिक्षा और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बनाई।
अमर प्रेरणा: गुरुजी का विरासत
5 जून 1974 को गुरुजी का निधन हुआ, लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं। उनके दर्शन ने न केवल संघ को एक सांस्कृतिक शक्ति बनाया, बल्कि युवाओं में अनुशासन, कर्मठता और देशभक्ति का संचार किया। आज भी लाखों स्वयंसेवक और राष्ट्रवादी उनके दिखाए मार्ग पर चल रहे हैं। गुरुजी का जीवन एक ऐसी मशाल है, जो आने वाली पीढ़ियों को भी रोशनी दिखाती रहेगी।
“गुरुजी का जीवन एक संदेश है – राष्ट्र के लिए जीओ, समाज के लिए समर्पित रहो।”