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Friday, November 22, 2024

मिनी बंगाल ‘बनारस’ में 257 साल से ‘मां दुर्गा’ विराजमान, मां जगदंबा ने विसर्जन से किया इंकार

वाराणसी, 4 अक्टूबर। मंदिरों के शहर काशी की गलियों में हर मंदिर की अपनी कहानी है। इतिहास से भी प्राचीन इस नगरी में कई ऐसे पौराणिक मंदिर हैं जिनके इर्दगिर्द हम रहते हुए भी उसके महात्म्य से वंचित हैं। इन्ही सबके बीच एक ऐसा मंदिर भी है, जिसका इतिहास ढाई सौ साल पुराना है। यहां पर 257 साल पुरानी मां दुर्गा की प्रतिमा विराजमान है, जिसका आज तक विसर्जन नहीं किया गया। देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी में अनेक ऐसे मंदिर हैं जिनकी सैकड़ों वर्ष से भी पुराना इतिहास है। उनमें ही शामिल है मां दुर्गा का दुर्गाबाड़ी माता मंदिर। दुर्गा पूजा उत्सव पर काशी में मिनी बंगाल की झलक देखने को मिलती है। नवरात्रि के खास मौके पर आपको इस मंदिर के इतिहास से रूबरू कराते हैं।
वाराणसी के मदनपुरा-जंगमबाड़ी में प्राचीन दुर्गाबाड़ी माता मंदिर में मां दुर्गा की प्रतिमा विराजित है, जो 257 वर्ष पूर्व 1767 में स्थापित की गई थी। आज भी यहां पर दूरदराज से श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं। इस मंदिर में बंगाल की संस्कृति और परंपरा भी देखी जा सकती है, क्योंकि इनके सेवादार बंगाल से आने वाले मुखर्जी परिवार से हैं। बंगाल के हुगली जिले से काशी पहुंचे जमींदार परिवार के काली प्रसन्न मुखर्जी बाबू ने 1767 में मदनपुरा क्षेत्र में गुरुणेश्वर महादेव मंदिर के निकट दुर्गा पूजा का आरंभ करते हुए एक प्रतिमा स्थापित की। विजयदशमी के दिन जब मूर्ति को उठाया जाने लगा तो देवी अपने स्थान से हिली नहीं। कोशिशे हजार हुईं, साठ साठ पहलवान भी 257 साल पहले लगाए गए ताकि मां को मान्‍यताओं के मुताबिक विसर्जित कर दिया जाए लेकिन क्‍या मजाल प्रतिमा किसी प्रयास से इंच मात्र हिली भर हो।
इसके बाद उन्होंने स्वयं मुखिया के सपने में आकर कहा कि मैं इसी स्थान में रहकर काशी में वास करूंगी। मुझे यहां से हटाने का प्रयास न करो। ऐसे में तबसे लेकर आज तक यह मूर्ति इसी जगह पर विराजित है और नवरात्र के साथ-साथ सामान्य दिनों में भी मां दुर्गा की पूजा होती है। अपनी मनोकामनाओं के साथ श्रद्धालु प्राचीन दुर्गाबाड़ी मंदिर में दर्शन करने के लिए आते हैं, माता रानी को गुड़ और चना भोग के रूप में अर्पित करते हैं।
आज तक नहीं हुई प्रतिमा की मरम्मत
प्रतिमा पर ढाई सौ साल पुरानी शिल्प कला का प्रभाव साफ नजर आता है। तैलीय रंगों से गढ़ी दुर्गा प्रतिमा के साथ गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय और महिषासुर भी हैं। यह दुर्गा प्रतिमा मिट्टी, बांस, स्ट्रॉ और रस्सी से बनाया गया है। पांच फीट ऊंची यह प्रतिमा आज भी वैसी ही है जैसे स्थापना के समय थी। स्थानीय लोग बताते है कि आज तक इस प्रतिमा का मरम्मत नहीं हुआ है। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मिट्टी से बनी इस मूर्ति को क्षरण से बचाने के लिए किसी भी प्रकार का रासायनिक लेप नहीं लगाया गया है और यह आज भी वैसी ही है। इस अद्भुत शिल्प कौशल को देखने के लिए लोग दूर- दूर से आते हैं। लोगों का मानना है कि यहां जो भी मां के दर्शन के लिए आता है उसकी इच्छा मां जरूर पूरा करती है।
पहनाई जाती है कागज की माला
मुखर्जी परिवार की दसवीं पीढ़ी की रानी देवी ने बताया कि बांस के फ्रेम में माटी और पुआल से बनी हुई प्रतिमा को हर साल शारदीय नवरात्र में रंग रोगन करके तैयार किया जाता है और प्रतिमा के शस्त्र-वस्त्र बदले जाते हैं। 1767 से मां दुर्गा की प्रतिमा उसी वेदिका पर विराजमान है। माता रानी को हार के रूप में कपड़े व कागज की माला पहनायी जाती है। प्रतिमा से कुछ दूरी पर ही उनको चढ़ाए जाने वाले पुष्प और भोग को रखा जाता है। पूरे साल विधि विधान से यहां पूजन होता है और अनेक श्रद्धालुओं की मुराद भी पूरी होती है। मंदिर परिसर में बंगाली भाषा में भी इस मंदिर की विशेषता के बारे में उल्लेख किया गया है। वाराणसी के साथ-साथ दूरदराज से भी श्रद्धालु यहां पर आते हैं। बंगाल के लोगों की यहां पर विशेष आस्था देखी जाती है। सभी श्रद्धालु विधि विधान से पूजन करते हैं और माता रानी सबकी इच्छाएं पूर्ण करती है।

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