नई दिल्ली, 10 जून 2025, मंगलवार: भीषण गर्मी की तपिश से जहां आम इंसान परेशान है, वहीं भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम भी इस मौसम से अछूते नहीं हैं! ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा, यानी स्नान पूर्णिमा के दिन, भगवान जगन्नाथ को ठंडक पहुंचाने के लिए 108 स्वर्ण कलशों से जलाभिषेक किया जाएगा। यह प्राचीन परंपरा न केवल भगवान को गर्मी से राहत देती है, बल्कि जगन्नाथ रथ यात्रा के भव्य उत्सव की शुरुआत भी करती है।

200 साल पुरानी परंपरा, 108 कलशों का पवित्र स्नान
11 जून 2025 को सूर्योदय से आधी रात तक भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम को स्वर्ण कलशों से स्नान कराया जाएगा। इस दौरान मंदिर के कपाट भक्तों के लिए बंद रहेंगे। यह रिवाज सिर्फ पुरी के जगन्नाथ मंदिर तक सीमित नहीं है, बल्कि देशभर के प्रमुख जगन्नाथ मंदिरों में इसे पूरे विधि-विधान से निभाया जाता है। स्नान के बाद भगवान को “बीमार” माना जाता है, और अगले 15 दिनों तक उनकी सेवा एक बीमार बालक की तरह की जाती है। उन्हें काली मिर्च, इलायची, अदरक, तुलसी, मुलेठी और गुलाबजल से बना विशेष काढ़ा पिलाया जाता है। यह काढ़ा भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है, और मान्यता है कि इसे 14 दिन तक ग्रहण करने वाला व्यक्ति पूरे वर्ष निरोग रहता है।

क्यों पड़ते हैं भगवान “बीमार”?
स्नान पूर्णिमा के बाद भगवान जगन्नाथ 15 दिनों के लिए “अनासार” यानी एकांतवास में चले जाते हैं। इस दौरान मंदिर के दरवाजे भक्तों के लिए बंद रहते हैं, और भगवान को केवल फलों का रस और जड़ी-बूटियों से बना काढ़ा ही अर्पित किया जाता है। इस परंपरा के पीछे एक रोचक पौराणिक कहानी है।
प्राचीन काल में, राजा इंद्रद्युम्न भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनवा रहे थे, लेकिन शिल्पकार ने काम अधूरा छोड़ दिया। इससे परेशान राजा को स्वयं भगवान ने दर्शन दिए और कहा, “विलाप न करो। मैंने नारद को वचन दिया था कि बालरूप में इसी स्वरूप में पृथ्वी पर विराजूंगा।” भगवान ने राजा को आदेश दिया कि ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन उनका 108 घड़ों से जलाभिषेक किया जाए। तभी से यह परंपरा चली आ रही है, जिसमें स्नान के बाद भगवान “बीमार” पड़ते हैं और 15 दिनों तक एकांत में आराम करते हैं।

रथ यात्रा की भव्य शुरुआत
15 दिन के एकांतवास के बाद, जब भगवान पूरी तरह “स्वस्थ” हो जाते हैं, वे अपने भव्य रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। इस दौरान भक्तों को उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है, और वे अपनी मौसी के घर, गुंडीचा मंदिर, की ओर प्रस्थान करते हैं। यह रथ यात्रा न केवल भक्ति का प्रतीक है, बल्कि भगवान और भक्तों के बीच अनूठे प्रेम और विश्वास का उत्सव भी है।