शारदा सिन्हा: एक संगीतमय यात्रा की शुरुआत…
✍️ अनिता चौधरी
पटना, 7 नवंबर 2024, गुरुवार। बिहार की कोकिला शारदा सिन्हा अब नहीं रहीं, लेकिन उनकी आवाज़ और गीतों की विरासत अमर है। मैथिली और भोजपुरी गीतों में उनका योगदान अनमोल है, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा। शारदा सिन्हा ने अपने गीतों में बिहार की संस्कृति और परंपरा को जीवंत किया। उनका गाया सच्चा लगता है, दिल में उतर जाता है। उन्होंने जो गाया, ताउम्र उसे जिया, और यही कारण है कि उनके गीतों में इतनी गहराई और भावना है। मैथिली और भोजपुरी गीतों में शारदा सिन्हा की आवाज़ एक अलग ही पहचान बनाती है। उनके गीतों में बिहार की संस्कृति की झलक दिखाई देती है, जो लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ती है। शारदा सिन्हा की विरासत जीवित रहेगी, और उनके गीत आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे। उनकी आवाज़ और गीतों को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा, और यही उनकी सच्ची पहचान है।
शारदा सिन्हा और सिन्हा साहब: एक अनमोल जोड़ी
बिहार कोकिला शारदा सिन्हा की कहानी उनके पति स्वर्गीय ब्रजकिशोर सिन्हा के बिना अधूरी है। उन्होंने शारदा को बिहार कोकिला बनाने में सबसे बड़ा योगदान दिया। शारदा सिन्हा हमेशा सिन्हा साहब को अपना सब कुछ मानती थीं। उनके निधन के महज 45 दिन बाद ही उन्होंने भी देह त्याग दिया, जैसे वे अपने पति के साथ ही जाने का फैसला कर चुकी थीं। उनके ‘हम आपके हैं कौन’ का अपना ही प्रसिद्ध गीत “बाबुल जो तुमने सिखाया…” में उनकी भावनाएं छुपी हुई हैं – “सजन घर ले चली… सजन घर मैं चली… यादों के देकर साये, चली घर पराए… तुम्हारी लाडली।” शारदा सिन्हा और सिन्हा साहब की प्रेम कहानी एक अनमोल जोड़ी की याद दिलाती है, जो हमेशा के लिए हमारे दिलों में बसी रहेगी।
बिहार की कोकिला की सुरीली यात्रा
बिहार की कोकिला शारदा सिन्हा का जन्म 1 अक्टूबर 1952 को सुपौल जिले के राघोपुर प्रखंड के हुलास गांव में हुआ था। उनके पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में वरीय अधिकारी थे, जिसके कारण परिवार में शिक्षा का विशेष महत्व था। शारदा सिन्हा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हुलास गांव से शुरू की और उच्च विद्यालयीय पढ़ाई के लिए सुपौल के विलियम्स हाई स्कूल में गईं। इसके बाद, उन्होंने बीएड की डिग्री प्राप्त की और यूपी से एमए की डिग्री हासिल की। शिक्षा पूरी करने के बाद, शारदा सिन्हा ने समस्तीपुर के वीमेंस कॉलेज में संगीत की प्राध्यापिका के रूप में काम किया। यहां उन्होंने अपने संगीतमय प्रतिभा को विकसित किया और छात्रों को संगीत की शिक्षा दी। इस तरह, शारदा सिन्हा ने अपनी शिक्षा और संगीत के ज्ञान को एक साथ जोड़कर एक अद्वितीय संगीतमय यात्रा की शुरुआत की, जो उन्हें बिहार की कोकिला के रूप में प्रसिद्ध बनाई।
शारदा सिन्हा के गीतों में बिहार की संस्कृति की अमर झलक
कॉलेज में पढ़ाने के दौरान, शारदा सिन्हा के एलबम लगातार लॉन्च होते रहे और उनकी प्रसिद्धी परवान चढ़ती गई। उनके गीतों ने लोगों के दिलों पर एक अनोखा प्रभाव डाला और उन्हें घर-घर में प्रवेश कर गईं। शारदा सिन्हा की आवाज़ में एक अनोखी मिठास थी, जो लोगों को आकर्षित करती थी। उनके गीतों में बिहार की संस्कृति और परंपरा की झलक दिखाई देती थी, जो लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ती थी। उनकी प्रसिद्धी के साथ-साथ, शारदा सिन्हा की संगीतमय यात्रा भी आगे बढ़ती गई। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से लोगों को एक नई दिशा दिखाई और अपनी आवाज़ को एक अद्वितीय पहचान दिलाई। आज, शारदा सिन्हा के गीत बिहार की संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं और उनकी आवाज़ लोगों के दिलों में बसी हुई है। उनकी संगीतमय यात्रा एक अद्वितीय सफलता की कहानी है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बनी रहेगी।
उग हो सुरूज देव… शारदा सिन्हा की आवाज़ में छठ की अमर पहचान
शारदा सिन्हा का विवाह बेगूसराय के ब्रजकिशोर सिन्हा के साथ हुआ था। परिवार में पुत्र अंशुमन सिन्हा और पुत्री वंदना है। शारदा सिन्हा ने 1974 से भोजपुरी गीत गाना शुरू किया और शादी विवाह के गीतों से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचीं। उनकी आवाज़ में बिहार की संस्कृति और परंपरा की झलक दिखाई देती थी, जो लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ती थी। शारदा सिन्हा भोजपुरी गीतों की रानी बन गईं और उनके गीत घर-घर में गूंथ गए। 1978 में शारदा सिन्हा ने अपनी मधुर आवाज़ में “उग हो सुरूज देव…” गीत गाकर पूरे देश में छा गईं। यह गीत न केवल बिहार के परंपराओं की पहचान बन गया, बल्कि छठ पूजा का एक अभिन्न अंग भी बन गया। शारदा सिन्हा की आवाज़ में छठ गीत की यह नई पहचान आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। 1989 में शारदा सिन्हा ने राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘मैने प्यार किया’ में अपनी मधुर आवाज़ में “कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनियां…” गाकर बॉलीवुड में एक जबरदस्त दस्तक दी। यह गीत न केवल फिल्म का एक बड़ा हिट साबित हुआ, बल्कि शारदा सिन्हा को बॉलीवुड में एक नई पहचान भी दिलाई।
शारदा सिन्हा की विरासत: बिहारी संस्कृति की बुलंदी
शारदा सिन्हा की उपलब्धियों की कहानी वास्तव में प्रेरणादायक है। 1991 में, उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया, जो उनके संगीत में उत्कृष्ट योगदान का सम्मान था। इसके बाद, 2000 में उन्हें संगीत नाटक पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो उनकी संगीतमय प्रतिभा का एक और सम्मान था। लेकिन यहीं नहीं रुके, 2006 में उन्हें अकादमी पुरस्कार राष्ट्रीय अहिल्या देवी अवार्ड से सम्मानित किया गया, जो उनके संगीत में महिला सशक्तिकरण के प्रति उनके योगदान का सम्मान था। और 2015 में, बिहार सरकार ने उन्हें सम्मानित किया, जो उनके बिहारी अस्मिता की पहचान को बुलंदी देने के प्रति उनके योगदान का सम्मान था और अंत में, 2018 में, उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया, जो उनके संगीत में उत्कृष्ट योगदान का सर्वोच्च सम्मान था। शारदा सिन्हा की यह उपलब्धियाँ वास्तव में प्रेरणादायक हैं और उनके संगीत में बिहारी अस्मिता की पहचान को बुलंदी देने के प्रति उनके योगदान का सम्मान करती हैं।
शारदा सिन्हा की यादें: एक अनमोल विरासत
5 नवंबर 2024 को भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली (एम्स) में शारदा सिन्हा ने अपनी अंतिम सांस ली। उनकी मौत की खबर ने उनके पैतृक गांव हुलास के लोगों को शोक में डूबो दिया। उनके परिजन बताते हैं कि शारदा सिन्हा ने अपने भाई पद्मनाभ के पुत्र की रिसेप्शन में 31 मार्च को अपने मायके हुलास आई थीं। तभी अंतिम बार गांववालों ने अपनी लाडली को देखा था। उस दिन शारदा सिन्हा ने अपने आंगन में जमकर और खुलकर खूब गीत गायी थीं। रिसेप्शन खत्म होने के बाद वापस जाते समय शारदा अपने नैहर (मायका) से मिथिला परंपरा के अनुसार दूब-धान खोइंछा लेकर गई थीं। तब शारदा सिन्हा ने अपनी भाभियों से कहा था, “खोइंछा भरि के हमरा पठाउ। बेटी के जत्ते देबै, नैहर तत्ते बेसी उन्नति करत।” (खोइंछा भर कर मुझे ससुराल भेजें। बेटी को जितना नैहर से मिलता है, नैहर उतना ही खुशहाल रहता है) यह उनकी आखिरी यादें हैं जो उनके परिजन और गांववालों के दिलों में बसी हुई हैं।
शारदा सिन्हा की याद में हुलास गांव की शोक-सभा
शारदा सिन्हा की मौत की खबर के बाद, उनके मायके हुलास गांव में एक शोक-सभा सा माहौल बन गया। लोग शांत घरों में बैठे थे, और हर कोई शारदा सिन्हा से जुड़े संस्मरणों को याद कर रहा था। गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, “अब कौन सुनायेगा ‘ससुर की कमाई दिलहे…’ गाना? विद्यापति के पद उनके जैसा बहुत कम लोग गाते थे। लगता था जैसे वह खुद गीत में उतर गई हों।” उन्होंने आगे कहा, “बर सुख सार पाओल तुअ तीरे…. सुनते ही लगता है जैसे विद्यापति ने इनके लिए ही लिखा हो।” गांववाले शारदा सिन्हा की सरलता और मिलनसारता को याद कर रहे थे। वे कहते हैं, “शारदा सिन्हा जब भी गांव आती थीं, तो गांव की बेटी की तरह हर एक लोगों से मिलती थीं। उनकी सरलता ने ही उन्हें महान बना दिया।” गांववालों ने गर्व से कहा, “शारदा सिन्हा सिर्फ हुलास की ही नहीं, बल्कि पूरे बिहार की बेटी थीं।”
शारदा सिन्हा की याद में निर्मला भाभी की भावनाएं
शारदा सिन्हा की मौत की खबर सुनकर उनकी चचेरी भाभी निर्मला ठाकुर खोई-खोई-सी हो गईं। वह शारदा को बचपन से ही जानती थीं और उनकी गायन प्रतिभा को पहचानती थीं। निर्मला भाभी याद करती हैं कि शारदा के शुरुआती दिनों में वह उन्हें पुराने गीत गाकर सिखाती थीं। दोनों मिलकर जंतसार (लगनी) गाती थीं और हंसी-मजाक भी खूब होता था। जब शारदा सिन्हा का कोई गाना हिट होता था, तो निर्मला भाभी खुशी से झूम उठती थीं। दोनों के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन संबंधों में कटुता नहीं आई। नौ माह पहले जब शारदा सिन्हा नैहर आयी थी, तो निर्मला भाभी की खुशी का ठिकाना नहीं था। वह गीत गाते-गाते कहती थीं कि शारदा तोहर गला एखनहुं ओहिना छौ। हमर गला तं फंसि जाइए। की खाइ छीही गै। (शारदा, तुम्हारा गला तो अभी भी वैसे ही है। मेरा गला तो फंस जाता है। तुम क्या खाती हो) शारदा हंस देती थी और कहती थी कि हुलास गांव का पानी पिये हैं हम। गला खराब नहीं होगा कभी। शारदा के बड़े भाई नृपेंद्र ठाकुर और छोटे भाई पद्मनाभ कहते हैं कि मेरी बहन करोड़ों में एक थीं। वह जब पुराने घर में गीत गाती थीं तो आसपास के लोग जुट जाते थे। उन्हें बचपन से ही गितगाइन (मधुर कंठ से गीत गाने वाली) कहा जाने लगा था। उनके कंठ में साक्षात सरस्वती का वास था। पुराना खपरैल के घर में वह रियाज किया करती थीं। इसी में उनका बचपन बीता था। यह घर अब टूट चुका है।