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Friday, February 7, 2025

काकोरी कांड: 17 साल की उम्र में बिस्मिल के साथ क्रांति का साथी बने मन्मथ नाथ गुप्त

‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है’ इन पंक्तियों को हम सब अपने बचपन से सुनते आ रहे हैं। ये कविता महान क्रन्तिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने लिखी थी। प्रसिद्द ‘काकोरी कांड’ के लिए फांसी दिए जाने वाले क्रांतिकारियों में से बिस्मिल मुख्य थे जिन्होंने काकोरी कांड की योजना बनाई थी, पर बिस्मिल के साथ ऐसे बहुत से और भी देशभक्त थे, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बना, खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था। कुछ तो उनके साथ ही फिज़ा में मिल गये, तो कुछ ने अपना कारावास पूरा करने के बाद आज़ादी तक संग्राम की मशाल को जलाये रखा। काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार होने वाले 16 स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे मन्मथ नाथ गुप्त। जब उन्होंने काकोरी कांड में बिस्मिल का साथ देने का फैसला किया तब वे मात्र 17 साल के थे। अपने जीवन की आखिरी सांस तक वे भारत के लिए ही जिए।
मन्मथ नाथ गुप्त का जन्म वाराणसी में 7 फरवरी 1908 को हुआ था। इनके पिता जी का नाम वीरेश्वर था और वे नेपाल के विराटनगर में स्थित एक स्कूल के हेडमास्टर थे। मन्मथ की पढ़ाई-लिखाई दो वर्ष तक नेपाल में हुई फिर उन्हें काशी विद्यापीठ में दाखिल करा दिया गया। उन दिनों भारत में अंग्रेजों के खिलाफ जंग शुरू हो चुकी थी। क्रांतिकारियों के लेखों और भाषणों ने मन्मथ को भी प्रभावित किया और सिर्फ 13 साल की उम्र में उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया। कहा जाता है कि किशोरावस्था से ही मन्मथ बहुत साहसी और निडर थे। साल 1921 में जब प्रिंस एडवर्ड बनारस आ रहे थे तो क्रांतिकारी चाहते थे कि बनारस के महाराज उनका बहिष्कार करें। इसलिए सभी ने अपनी गतिविधियाँ तेज कर रखी थीं। बनारस के गाडोलिया क्षेत्र में मन्मथ भी लोगों को जागरूक करने के लिए पर्चे और पोस्टर बाँट रहे थे।
तभी अचानक एक पुलिस अफसर आ गया। पर उसे देखकर मन्मथ भागे नहीं बल्कि वे खड़े रहे और अपना काम करते रहे। इस दुस्साहस के लिए जब उन्हें जज के सामने लाया गया तो उन्होंने दृढ़ता से कहा कि मैं आपके साथ सहयोग नहीं करूँगा। मन्मथ को तीन महीने जेल की सजा सुनाई गयी थी। उन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए कार्यकर्ता के रूप में भी काम किया। जब महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो बाकी सभी सेनानियों के साथ मन्मथ ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। लेकिन चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधी जी ने आन्दोलन वापिस ले लिया। इससे सभी युवा क्रांतिकारियों को भारी निराशा हुई।
मन्मथ नाथ हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सक्रीय सदस्य थे। यहाँ वे सबसे युवा क्रांतिकारियों में से थे। राम प्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में 9 अगस्त 1925 को हुई काकोरी डकैती में मन्मथ भी शामिल थे। एक बार उन्होंने कहा, हमें क्रांतिकारी कहा गया पर हम साधारण लोग थे जो बस अपने देश के लिए खुद को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। भारत के एक और सपूत वीर चंद्रशेखर आजाद को हिदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में मन्मथ ही लेकर आये थे। मन्मथ द्वारा बाद में लिखी गयी किताबों में इन बातों का जिक्र मिलता है। काकोरी कांड न केवल देश के लिए बल्कि मन्मथ के जीवन का भी अहम मोड़ था। आखिर क्या हुआ था 9 अगस्त 1925 को, जो यह दिन आज भी भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है!
दरअसल, इसी दिन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी। इसी घटना को ही ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है। क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके। इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे। यह ब्रिटिश भारत में हुई सबसे बड़ी चोरी थी।
क्रान्तिकारियों ने डकैती के दौरान पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी इस्तेमाल किये थे। उन दिनों ये माउजर आज की ऐ.के- 47 रायफल की तरह चर्चित हुआ करता था। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथ नाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। मन्मथ ने गलती से माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली एक आम यात्री को लग गयी। उसकी वहीं मौत हो गयी। इससे मची अफरा-तफरी में, चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने के दौरान एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन यह खबर सब जगह फैल गयी।
ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को बहुत गम्भीरता से लिया और सी. आई. डी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया। पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती के बारे में सब उगलवा लिया।
इसके बाद एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गये और उन पर मुकदमा चला। इनमें से चार क्रांतिकारियों- राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खान व ठाकुर रोशन सिंह को फांसी हुई और बाकी सभी को 5 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। मन्मथ उस वक़्त नाबालिग थे, इसलिए उन्हें फांसी की सजा न देकर आजीवन कारावास (14 साल) की कड़ी सजा मिली। साल 1939 में जब वे जेल से छूटकर आये तो उन्होंने फिर एक बार अंग्रेजों का विद्रोह शुरू किया। हालाँकि, इस बार उनका हथियार उनकी लेखनी थी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ समाचार-पत्रों में लिखना शुरू किया। जिसके चलते उन्हें एक बार फिर कारावास की सजा सुनाई गयी। साल 1939 से लेकर 1946 तक उन्होंने जेल में रखा गया। उनके रिहा होने के एक साल बाद ही देश आजाद हो गया।
स्वतंत्रता के बाद भी उनका लेखन-कार्य जारी रहा। स्वतन्त्र भारत में वे योजना, बाल भारती और आजकल नामक हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और बंगाली में लगभग 120 किताबें लिखीं. जिनमें शामिल हैं- द लिवड़ डेंजरसली- रेमिनीसेंसेज ऑफ़ अ रेवोल्यूशनरी, भगत सिंह एंड हिज़ टाइम्स, आधी रात के अतिथि, कांग्रेस के सौ वर्ष, दिन दहाड़े, सर पर कफन बाँध कर, तोड़म फोड़म, अपने समय का सूर्य:दिनकर, और शहादतनामा आदि। आज़ाद भारत में वे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से जुड़े और तमाम गतिविधियों में सक्रीय रहे। साल 1997 में 27 फरवरी को दूरदर्शन नेशनल की डॉक्युमेंट्री ‘सरफरोशी की तमन्ना’ के लिए उन्होंने अपना अंतिम साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार में उन्होंने कबूला कि उनकी ही एक गलती की वजह से काकोरी कांड के सभी क्रन्तिकारी और उनके प्रिय ‘बिस्मिल’ पकड़े गये थे। उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात का ताउम्र अफ़सोस रहा है कि उस वक़्त उन्हें फांसी क्यों नही हुई। पर मन्मथनाथ गुप्त ने अपना पूरा जीवन देश की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। स्वतंत्रता से पहले उनका जीवन ज्यादातर जेल में बीता पर फिर भी वे अंग्रेजों के समक्ष डटकर खड़े रहे। वे अपने आखिरी समय तक उसी राह पर चले जो उन्हें उनके महान नेता राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने दिखाई थी। साल 2000 में 26 अक्टूबर को उन्होंने दुनिया से विदा ली। आज उनकी किताबें ही बहुत से लोगों के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस दौर के बारे में जानने का जरिया हैं।
भारत माँ के इस सच्चे सपूत को हमारा नमन

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