नई दिल्ली, 23 मई 2025, शुक्रवार। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अभय सपन ओका ने न केवल अपने कर्तव्यनिष्ठा से सबका दिल जीता, बल्कि एक ऐसी मिसाल कायम की, जो न्यायिक परंपराओं को नया आयाम देती है। रिटायरमेंट के दिन आमतौर पर जज कोई फैसला नहीं सुनाते, मगर जस्टिस ओका ने इस रवायत को ध्वस्त करते हुए अपने आखिरी कार्यदिवस पर 11 महत्वपूर्ण फैसले सुनाए। यह उपलब्धि इसलिए और भी खास है, क्योंकि एक दिन पहले ही उनकी मां का निधन हो गया था। फिर भी, वह अंतिम संस्कार के लिए मुंबई जाने के बाद दिल्ली लौटे और अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी।
मां के निधन के बाद भी नहीं डगमगाया कर्तव्य
गुरुवार को अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने के बाद जस्टिस ओका शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट लौटे। यह उनका आखिरी कार्यदिवस था। जहां ज्यादातर जज इस दिन औपचारिक विदाई समारोह तक सीमित रहते हैं, वहीं जस्टिस ओका ने कई बेंचों में हिस्सा लिया और 11 फैसले सुनाए। उन्होंने चीफ जस्टिस बीआर गवई के नेतृत्व वाली प्रतीकात्मक बेंच में भी हिस्सा लिया, जो रिटायर होने वाले जज को सम्मान देने की दशकों पुरानी परंपरा का हिस्सा है।
“रिटायरमेंट शब्द से नफरत करता हूं”
जस्टिस ओका ने हमेशा यह माना कि रिटायरमेंट का दिन भी पूरे समर्पण के साथ काम करने का दिन होना चाहिए। 21 मई को सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन द्वारा आयोजित विदाई समारोह में उन्होंने स्पष्ट कहा, “मैं इस परंपरा को सही नहीं मानता कि रिटायरमेंट के दिन जज काम न करें। मैं चाहता हूं कि आखिरी दिन भी फैसले सुनाऊं।” उन्होंने यह भी सुझाया कि रिटायरमेंट के दिन गार्ड ऑफ ऑनर की परंपरा को दोपहर 1:30 के बजाय शाम 4:00 बजे किया जाए, ताकि जज पूरे दिन काम कर सकें। उनकी यह सोच उनके कर्तव्य के प्रति अटूट समर्पण को दर्शाती है।
जिला अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक का प्रेरक सफर
जस्टिस ओका का सफर प्रेरणा से भरा है। यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे से लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 1983 में अपने पिता श्रीनिवास ओका के ठाणे जिला अदालत के चेंबर से वकालत शुरू की। मेहनत और लगन के दम पर वह 2003 में बॉम्बे हाई कोर्ट के जज बने, फिर 2005 में स्थायी जज नियुक्त हुए। 2019 में वे कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस बने और 2021 में सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में नियुक्त हुए। करीब चार साल के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसलों के जरिए न्यायिक प्रणाली को मजबूत किया।
एक नई मिसाल
जस्टिस ओका ने न केवल अपनी ड्यूटी के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई, बल्कि यह भी साबित किया कि व्यक्तिगत दुख के सामने भी कर्तव्य को प्राथमिकता दी जा सकती है। उनके इस कदम ने न केवल सुप्रीम कोर्ट की परंपराओं को चुनौती दी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण स्थापित किया। जस्टिस ओका का यह आखिरी कार्यदिवस न केवल उनके करियर का शानदार समापन था, बल्कि यह भी दिखाया कि सच्चा जज वही है, जो हर परिस्थिति में न्याय को सर्वोपरि रखता है।