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Sunday, June 22, 2025

22 जून, स्मृति दिवस: चाफेकर बंधुओं का क्रांतिकारी बलिदान

पुणे, 22 जून 2025: ब्रिटिश शासन के अत्याचारों के खिलाफ पुणे में एक ऐतिहासिक घटना ने स्वतंत्रता संग्राम की नींव को और मजबूत किया। चाफेकर बंधुओं—दामोदर हरि, बालकृष्ण हरि और वासुदेव हरि—ने अंग्रेज अधिकारियों वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट-ये का वध कर ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। यह घटना न केवल पुणे की जनता के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए स्वतंत्रता की चिंगारी बन गई।

सन् 1897 में पुणे प्लेग की भयावह बीमारी से जूझ रहा था। इस संकटकाल में भी अंग्रेज अधिकारी रैण्ड और आयर्स्ट जनता को अपमानित और प्रताड़ित कर रहे थे। पूजाघरों में जूते पहनकर घुसना और लोगों को जबरन शहर से निकालना उनके अत्याचारों का हिस्सा था। इन अत्याचारों से त्रस्त पुणे की जनता में आक्रोश पनप रहा था।

चाफेकर बंधु, जो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित थे, ने इस अन्याय के खिलाफ क्रांति का मार्ग चुना। तिलक के शब्द, “शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, तुम लोग क्या कर रहे हो?” ने इन युवाओं में देशभक्ति की आग जला दी। उन्होंने रैण्ड और आयर्स्ट को सबक सिखाने का संकल्प लिया।

22 जून 1897 को महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती के अवसर पर पुणे के गवर्नमेंट हाउस में आयोजित समारोह में चाफेकर बंधुओं ने अपनी योजना को अंजाम दिया। रात 12:10 बजे, जैसे ही रैण्ड और आयर्स्ट अपनी बग्घियों में सवार होकर निकले, दामोदर ने रैण्ड को और बालकृष्ण ने आयर्स्ट को गोली मार दी। आयर्स्ट की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि रैण्ड तीन दिन बाद अस्पताल में चल बसा। इस घटना ने पुणे की जनता में जोश भर दिया और चाफेकर बंधुओं की जय-जयकार होने लगी।

ब्रिटिश प्रशासन ने चाफेकर बंधुओं को पकड़ने के लिए 20 हजार रुपये के इनाम की घोषणा की। दुर्भाग्यवश, द्रविड़ बंधुओं—गणेश शंकर और रामचंद्र—ने लालच में आकर चाफेकर बंधुओं का सुराग दे दिया। दामोदर पकड़े गए और उन्हें 18 अप्रैल 1898 को यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई। फांसी के तख्ते पर भी उनके हाथ में तिलक द्वारा दी गई ‘गीता’ थी, जिसे पढ़ते हुए उन्होंने हंसते-हंसते प्राण त्याग दिए।

बालकृष्ण ने अपने परिवार पर हो रहे अत्याचारों के चलते आत्मसमर्पण कर दिया। दूसरी ओर, वासुदेव और उनके साथी महादेव रानडे ने द्रविड़ बंधुओं को सजा दी। बाद में बालकृष्ण, वासुदेव और रानडे को भी 1899 में यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई।

तिलक द्वारा शुरू किए गए ‘शिवाजी महोत्सव’ और ‘गणपति महोत्सव’ ने इन क्रांतिवीरों में देशभक्ति की भावना जगाई थी। चाफेकर बंधुओं और उनके साथी रानडे ने अपने बलिदान से यह साबित कर दिया कि भारतीय जनता ब्रिटिश अत्याचारों को कभी स्वीकार नहीं करेगी। इन वीरों ने अपने जीवन का बलिदान देकर स्वतंत्रता संग्राम की नींव को और मजबूत किया, बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के।

यह खबर इतिहास के उन गौरवमयी पन्नों को याद करती है, जो देशभक्ति और बलिदान की अमर गाथा कहते हैं।

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