- प्रशांत पोळ
केवल दक्षिण भारत में रोमन साम्राज्य के 6000 से अधिक सिक्के मिले हैं। यह सिक्के सोने या चांदी के है। प्रमुखता से यह सिक्के, सीजर ऑगस्टस और टिबेरुस (Tiberius) इन राजाओं के कालखंड के है। अर्थात, ईसा पूर्व 100 – 200 वर्ष से लेकर सन 100 तक के ये सिक्के हैं। मजेदार बात यह है, कि इटली को छोड़ दे, तो विश्व में सबसे अधिक प्राचीन रोमन सिक्के अपने भारत में ही मिले हैं।
इसी कालखंड में भारत के व्यापार का एक और जबरदस्त प्रमाण मिला है, इटली के पोंपेई (Pompeii) इस शहर में। नेपल्स शहर के पास बसे हुए इस छोटे से शहर की एक विशेषता है। पहली सदी में, सन 79 में, इस शहर के निकट माउंट वेसुविअस में ज्वालामुखी का प्रचंड विस्फोट हुआ। उसमें से निकले लावारस में यह शहर पूरी तरह दब गया। अगले अनेक वर्ष, यह इस मलबे में 15 से 20 फीट अंदर दबा रहा। इसकी खोज हुई, सोलहवीं सदी में। और आगे चलकर उन्नीसवीं सदी में इसका उत्खनन प्रारंभ हुआ। 1960 तक यह शहर लगभग पूरा मलबे से बाहर निकल सका। इतने वर्ष मलबे में दबने के बाद भी, दबी हुई वस्तुएं अच्छी स्थिति में मिली।
इस उत्खनन में उन्हें एक देवी की मूर्ति मिली। ईसा पूर्व 200 वर्ष (अर्थात आज से 2200 वर्ष पूर्व) यह प्रतिमा तैयार हुई होगी। हाथी के दांतों की यह प्रतिमा, पूर्णतया भारतीय है। अक्टूबर 1938 में यह देवी की प्रतिमा खोज निकाली Amedeo Maiuri नाम के इटालियन पुरातत्व विशेषज्ञ ने। प्रारंभ में यह प्रतिमा देवी लक्ष्मी की मानी गई। विश्व में यह प्रतिमा ‘पोंपेई लक्ष्मी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। परंतु बाद में अध्ययन के बाद यह माना गया कि यह प्रतिमा लक्ष्मी की नहीं, किसी यक्षिणी की है।
यह प्रतिमा मथुरा में तैयार की गई होगी ऐसा एक मत है। अन्य मतानुसार महाराष्ट्र के जालना जिले के भोकरदन में यह मूर्ति तैयार हुई होगी। क्योंकि ऐसी ही एक मूर्ति वहां भी मिली है। इस मूर्ति के साथ ही, सातवाहन कालखंड का, राजा वशिष्ठिपुत्र पुलुमवी (पहली सदी) का सिक्का मिला है। यह सातवाहनोंके सागरी व्यापार का प्रमाण है।
इटली की पोंपेई लक्ष्मी कि ईसा पूर्व 200 वर्ष की मूर्ति, यह भारत – रोमन साम्राज्य में होने वाले व्यापार का जबरदस्त प्रमाण तो है ही, परंतु इसी मूर्ति के कालखंड के आसपास, भारत – रोमन व्यापार का और एक मजबूत प्रमाण मिला है, भारत में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में..!
‘पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रिरियन सी’ इस प्राचीन प्रवास वर्णन में उल्लेख होने के कारण, कोल्हापुर शहर के पश्चिम दिशा में, पंचगंगा नदी के तट पर, सन 1877 में सर्वप्रथम उत्खनन किया गया। आगे चलकर सन 1945 – 46 में, डेक्कन कॉलेज, पुणे के माध्यम से पुरातत्ववेत्ता हसमुख सांकलिया और मोरेश्वर दीक्षित के नेतृत्व में विस्तृत उत्खनन हुआ। यह भाग ब्रह्मपुरी नाम से जाना जाता था। इस उत्खनन में उनको अनेक वस्तुएं मिली। उसमें ग्रीको रोमन रचना की भी वस्तुएं थी। इसके अलावा इसमें उन्हें ‘पोसायडन’ इस ग्रीको रोमन समुद्र देवता की ब्रांझ की मूर्ति मिली। यह मूर्ति लगभग 7 इंच की है। पहली सदी मे, ग्रीस के अलेक्जेंड्रिया में यह मूर्ति तैयार की गई होगी। ब्रह्मपुरी के परिसर में उस समय सातवाहनोंका साम्राज्य था। इस पोसायडन मूर्ति के साथ-साथ, अनेक रोमन सिक्के भी मिले हैं।
इन सब प्रमाणों से वैज्ञानिकों ने यह अनुमान निकला की, इस ब्रह्मपुरी (आज का कोल्हापुर) में, ग्रीक व्यापारियों की रहने की बस्ती (बसाहट) होगी। यह ग्रीक व्यापारी, उनके पोसायडन इस समुद्र देवता को हमेशा साथ लेकर प्रवास करते होंगे।
भारत के रोमन-ग्रीक इन देशों के साथ प्राचीन व्यापार के और कितने स्पष्ट प्रमाण चाहिए?
‘कोल्हापुर पोसायडन’ यह मूर्ति और एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा करती है। रोम और ग्रीस के साथ व्यापार के लिए उपयोग में आने वाला ‘मसाला मार्ग’ (स्पाइस रूट, समुद्री मार्ग) यह केवल भारत के दक्षिण मे, विशेष रूप से केरल के बंदरगाहों तक, सीमित नहीं था, तो कोकण और गुजरात से भी सीधे समुद्र मार्ग से यूरोपीय देशों के साथ व्यापार होता था।
सन 2023 में भारत में G20 का समिट हुआ। इसकी अध्यक्षता भारत ने की थी। इस समिट में एक आर्थिक कॅरिडाॅर की संकल्पना रखी गई। यह संकल्पना संबंधित देशों के साथ-साथ अन्य देशों को भी पसंद आई। ‘भारत – मध्य पूर्व – यूरोप’ ऐसा यह आर्थिक कॅरिडाॅर (India – Middle East – Europe Economic Corridor – IMEEC) होने वाला है।
भारत के संदर्भ में गहन अध्ययन करने वाले विलियम डार्लिंपल ने इस संकल्पना का स्वागत किया है। उनका कहना है कि, ‘लगभग 2000 वर्ष पूर्व, यही भारत का सही और महत्वपूर्ण व्यापारी मार्ग था’। डार्लिंपल के कहने के अनुसार, ‘सिल्क रुट यह एक तरह से नई संकल्पना है। सिल्क रुट या सिल्क रोड यह संकल्पना सर्वप्रथम उन्नीसवी सदी में, जर्मन भूगोल वैज्ञानिक, ‘फार्मिंग – बोन – रिश्टोफेन’ ने सबके सामने रखी। वह अंग्रेजी साहित्य और भाषा में सन 1930 से शामिल हुई। लेकिन विगत 20 /25 वर्षों में सही मायने में यह शब्द जनमानस में लोकप्रिय हुआ’।
वस्तुस्थिति यह है कि उस कालखंड में, सबसे जलद गति का, सबसे सस्ता और तुलनात्मक रुप से सबसे सुरक्षित व्यापारी मार्ग, यह मसाला मार्ग था, जो बीच समंदर से जाता था।
पहली सदी के आसपास, रोमन साम्राज्य के ‘प्लिनी द एल्डर’ (गायस प्लिनियस सेकुंडस – वर्ष 23 से 79) ने भारत समेत अनेक देशों में बहुत प्रवास किया। उसने लिखकर रखा है-
‘हमारी रोमन महिलाओं को क्या हुआ है? भारतीय वस्त्रों और हीरे – माणिक से बने हुए गहनों की ओर, वह इतनी ज्यादा आकर्षित क्यों होती है? यह महिलाएं रोमन ऊनी वस्त्र पहनकर खुश नहीं रह सकती क्या? इससे यह हो रहा है कि भारत की निर्यात प्रचंड मात्रा मे होने के कारण, भारतीय माल के बदले में हमें उतना ही (अर्थात, भरपूर) सोना देना पड़ रहा है। हमारा सब सोना भारत में जा रहा है’।
हमारे व्यापार करने की क्षमता पर प्लिनी जैसे इतिहासकारने इतने स्पष्ट रूप से लिख कर रखा है। पर हमारा दुर्भाग्य की ‘भारत का वैश्विक व्यापार में इतना मजबूत स्थान था’ यह हमें किसी ने, कभी सिखाया ही नहीं।
डार्लिंपल के अनुसार, यूरोप के साथ व्यापार करते समय भारतीय बहुत महंगी या कीमती वस्तुएं आयात नहीं करते थे। ओलिव ऑयल, वाइन जैसी वस्तुएं आयात होती थी। लेकिन यूरोपीय देशों का इससे उल्टा था। वह अत्यंत महंगी वस्तुएं आयात करते थे। हिरे, माणिक, मोती के गहने, मसाले, सूती वस्त्र, नील…. अर्थात, इस व्यापार में भारत हमेशा ‘जमा’ वाली स्थिति (ट्रेड सरप्लस) में रहता था, और यूरोपीय देशों का ‘ट्रेड डिफिसिट’ रहता था। इसलिए भारत में हजारों की संख्या में प्राचीन रोमन सिक्के मिले हैं।
‘पेरीप्लस ऑफ द एरीथ्रिरियन सी’ इस पुस्तक में भडोच का उल्लेख आता है। उस समय वहां ‘नहपान’ नाम का शक राजा राज्य करता था। भडोच से नील, हांथीदात की वस्तुएं, गहने, सूती कपड़ा, सूती वस्त्र, रेशीम, लॅपिसलझुली (रत्न), काली मिर्च आदी मौल्यवान वस्तूएं रोम में निर्यात होती थी।
महाराष्ट्र के शुर्पारक (आज के नालासोपारा), कल्याण, चौल आदि बंदरगाहों में ग्रीक जहाज आते थे, ऐसा उल्लेख इस पुस्तक में आया है।
मुख्यतः भारत के पश्चिमी किनारे से इजिप्त और यूरोप के साथ होने वाला व्यापार हमने देखा। उसके कारण भारत मे आई हुई प्रचंड समृद्धि भी हमने देखी।
अब भारत के पूर्व किनारे से चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से होने वाले व्यापार की क्या स्थिति थी, यह पढ़ने के लिए, पढिएं – ‘खजाने की शोधयात्रा’
- प्रशांत पोळ
(आगामी प्रकाशित ‘खजाने की शोधयात्रा’ इस पुस्तक के अंश)